माँ गंगा

जय जय जय माँ गंगे जय जय
तेरा जल तो अमृत है माँ
गौ मुख से गंगा सागर तक
निर्मल जल लेकर माँ बहती है।

नयन सुहानी मन में बसती
हिम शिखरों से माँ निकलती
भागीरथ के तप से आई माँ
भागीरथी तू कहलाई माँ।

मानव कल्याण के लिए तू
इस धरा धाम पर प्रकट हुई है
धरती के हरियाली में भी
योगदान तुम देती हो माँ।

नहीं माँगती कभी किसी से
सबका हित तुम करती हो
अमृत मय धारा माँ की है
पर्वत से अठखेलियाँ करती है।

इस अमृतमय जल को हमने
देखो कितना गन्दा कर दिया
नहीं दिखाई देता हमको
पीड़ाएँ जो माँ सहती है।

आओ हम सब संकल्प लें
अब ना करेंगे गंगा प्रदूषित
उस अमृत में जहर मिलाकर
हमने माँ गंगा का अपमान किया।

तब ही माँ की आन बचेगी
जब हम इसको दूषित न करें
गंगा तट पर तब जय जय गंगे की
जयकारों की गूँज बढ़ेगी।।

रचयिता
कालिका प्रसाद सेमवाल,
प्रवक्ता,
डायट-रतूड़ा,
जनपद-रुद्रप्रयाग,
उत्तराखण्ड।

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