सुन ए राही

चलते-चलते जीवनपथ पर राहें मुझसे पूछ उठीं,
क्या है तेरा सफर यहीं तक या सफर की मंजिल दूर कहीं?

क्या तुझको ऐसे ही बस चलते-चलते जाना है?
या कोई मंजिल है तेरी, कोई तेरा ठौर ठिकाना है?

सुन ए राही ...सोच जरा और कहाँ तक जाना है?

सुनकर यह सब मेरे अंदर एक अलग सी लहर उठी,
पता नहीं जब मंजिल अपनी तो क्या अब तक व्यर्थ चली!

तभी अचानक किसी जन्म का पुण्य मेरा जैसे जागा,
प्रभु की कृपा हुई और अंतर्मन का तम भागा।

पता चला यह जग है जैसे एक नाटकशाला।
मैं हूँ आत्मा कलाकार भिन्न-भिन्न रूपों वाला,

हैं सब अपने असल रूप में रंगमंच का है धोखा।
पल-पल बदल रहा सब कुछ जो कुछ तुमने है देखा।

कौन पराया कौन है अपना सोच जरा है इंसान,
हम सब हैं इस रंगमंच पर एक पिता की संतान।

याद रखो आए थे आत्म रूप में उसी रूप में जाना है,
दुआ - बद्दुआ साथ में जाती तुमको क्या ले जाना है।

अपने-अपने किरदार यहाँ अपनी निश्चित है घड़ियाँ,
रंगमंच त्याग आ ही जाता, कह रही देखो सदियाँ।
             
रचयिता
आभा यादव,
सहायक अध्यापिका,
प्राथमिक विद्यालय धारिकपुर,
विकास क्षेत्र- निधौली कलाँ,
जनपद- एटा।

Comments

  1. आत्ममंथन की बहुत सुन्दर प्रस्तुति ।

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