सच का साथ निभाते हैं

जीवन के राजमार्ग पर,
यूँ तो सब चलते जाते हैं।
कुछ होते हैं युगदृष्टा भी
पथ पर पग चिन्ह बनाते हैं।

युग के झंझावत झेलकर,
कब डरते हैं बाधाओं से।
सृजन स्वप्न की मंजिल को,
पाते हैं प्रबल त्वराओं से।

करते हैं संकल्प अगर तो,
कब वे पीछे हट जाते हैं?
मानवत्व के स्वाभिमान से,
जय का ध्वज लहराते हैं।

जलता दीपक तिल-तिल कर,
वह तम से लड़ता जाता है।
सघन गहन हो रात अमा की,
पर वह तो जलता जाता है।

जो मानवता के प्रहरी हैं,
शूलों से कब घबराते हैं?
छिल-छिल पाँवों के छाले,
स्वर्णिम राह दिखाते हैं।

यह मानव जीवन है महान,
ये समझ सभी कब पाते हैं?
जो पढ़ते हैं इसकी गाथाएँ,
वे तो इतिहास बनाते जाते हैं।

स्थापित करने नव मूल्यों को,
वैचारिकता प्रखर जगाते हैं।
छद्म जाल सब तोड़ तोड़कर,
वे सच का साथ निभाते हैं।

जीते हैं सीमा में आवृत्त हुए,
वे जन पथ पर कब जाते हैं?
शून्य हुए जो संवेदन भावों से,
वे जनपीर समझ कब पाते हैं।

रचयिता
सतीश चन्द्र "कौशिक"
प्रधानाध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय अकबापुर,
विकास क्षेत्र-पहला, 
जनपद -सीतापुर।

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