मुख मोड़ चले

चित्रकूट की पावन धरा में प्रमोद वन में सेवाश्रम की एक वृद्ध माँ से  हालचाल के उपरांत एक इंजीनियर बेटा जो विदेश में सेवारत है, लम्बे अरसे से माँ से न मिलने की स्थिति, माँ को बेटे की आने की प्रबल आस, वृद्धाश्रम में छोड़ने की स्थिति को माँ पयस्वनी नदी के  पावन तट पर कामतानाथ जी की कृपा से रचित यह कविता सादर प्रस्तुत है।

जिसने उँगली पकड़ चलाया,
उनसे ही मुख मोड़ चले।
पड़ी जरूरत जब सेवा की,
वृद्धाश्रम छोड़ चले।
आज पिता कोई बात दुबारा,
पूछे तो चिढ़ जाते हो।
कहते हो अपशब्द कि क्यों तुम,
बार-बार टर्राते हो।।
बरगद जैसी छाँव पिता की,
छाँव से रिश्ता तोड़ चले।।     
पडी़ जरूरत……..........
जब गंभीर पड़ी बीमारी,
माँ ने सीने से चिपकाया।
क्या कीटाणु, कैसी गंदगी,
मन में उसके तनिक न आया।।
ममता की प्रतिमूर्ति है मैया,
उसका दामन छोड़ चले।।     
पड़ी जरूरत.................
वृद्ध बिचारे हुये तो उनका,
नागवार हर स्वर लगता है।
इनकी साँसों की छींको से,
इन्फेक्शन का डर लगता है।।
कर्ज़ बहुत है तुम पर इनका,
फर्ज से क्यों मुख मोड़ चले।।
पड़ी जरूरत.................
खूब कराई उनसे सेवा,
अब जब आई खुद की बारी।
छोड़ चले इनको सेवाश्रम,
यह तो है सचमुच गद्दारी।।
आँसू इनके तनिक ना देखे,
नेह के बंधन तोड़ चले।।
पड़ी जरूरत.................
एक दिन भैया ऐसा भी आये,
हम भी बूढ़े हो  जाएँगें।
लड़के बहुएँ अपने घर के, 
हमको दो शब्द सुनाएँगे।।
सेवा कर लो मात-पिता की,
गौतम गीत से जोड़ चले।।
पड़ी जरूरत.................
जिनने उँगली पकड़ चलाया,
उनसे ही मुख मोड़ चले।
पड़ी जरूरत जब सेवा की,
वृद्धाश्रम छोड़ चले।।

रचयिता
उमेश गौतम,
प्रधानध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय रामपुर कल्याणगढ़,
विकास खण्ड-मानिकपुर,
जनपद-चित्रकूट।

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