अर्थ डे का बर्थ डे

सहस्त्र धाराएँ सूख रहीं हैं,
बदलेंगी गन्दे नालों में।।
वो दिन ज़्यादा बेहतर थे,
जलते थे दीपक आलों में।।

हर आला रोशन रखने की,
नहीं किसी ने ठानी थी।।
कुँए की जगत न सूखी हो,
ऐसी भी न मनमानी थी।।

खिड़की से चाँद भी झाँके,
कुछ ऐसी चाहत होती थी।।
सूरज की पहली किरणों की,
मुस्काती राहत होती थी।।

अब तो चाँद व कोसा सूरज,
खुद दिखने को तरसते हैं।।
हर खिड़की और झरोखे पर,
कूलर और ए. सी. हँसते हैं।।

पछुआ और पुरवाई का,
अब किसी को ज्ञान नहीं।।
कृत्रिम घास में टहल-टहल,
स्वस्थ रहें, अरमान यही।।

गंगा, यमुना जीवित हैं,
भान हुआ है आज अभी।।
वृक्ष सदा से ही ज़िंदा थे,
सदियों से जानते हैं सभी।।

फ़िर भी वृक्षों की हत्या का,
कोई नया-पुराना कानून नहीं।।
धरती रोयेगी ज़ार - जाऱ,
दुःख किसी को मात्र- नाम नहीं।।

रचयिता
श्रीमती अमिता दीक्षित,
प्रधानाध्यापिका,
प्राथमिक विद्यालय भैसौली प्रथम,
विकास खण्ड-देवमई, 
जनपद-फ़तेहपुर।

Comments

  1. बहुत सुन्दर रचना ।
    बधाई आपको 👌👌👏👏👏

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