बेटी नहीं बचाओगे तो बहू कहाँ से लाओगे

अशिक्षितों को तो छोड़िए, पढ़े-लिखे लोग भी नहीं हो रहे जागरूक
 मेरठ :  पढ़ी लिखी लड़की, रोशनी घर की, लड़का-लड़की एक समान और लड़की लिख-पढ़ जाएगी, संग उजियारा लाएगी। राह चलते इस तरह की इबारतें तमाम दर-ओ-दीवार पर लिखी आम दिखती हैं। लड़कियों के महत्व को इंगित करती इन पंक्तियों के मायने सच्चे भी हैं और अच्छे भी लेकिन हकीकत बड़ी कड़वी है। लोग धन  व समृद्धि के लिए माँँ लक्ष्मी की आराधना करते हैं।  ज्ञान, विवेक के लिए माँ सरस्वती को पूजते हैं। शत्रुओं पर विजय पाने के लिए माँँ काली को प्रसन्न करते हैं, लेकिन जब यही देवियाँ लड़की के रूप में उनके घर में आना चाहती हैं तो यह बात उन्हें नागवार गुजरती है और उन्हें वे गर्भ में ही मौत की नींद सुला देते हैं। मायने बहुत साफ़ हैं कि उन्हें  ये देवियाँ सिर्फ मूर्तियों और तस्वीरों में ही अच्छी लगती हैं, भला असल जिंदगी में उनका क्या काम! शक्ति स्वरूपा ये महज एक बोझ, एक पीड़ा बनकर रह जाती हैं। 

इस समय भारत में कई महत्वपूर्ण पदों पर महिलाएँ आसीन हैं। वहीं दूसरी तरफ भारत में कन्या भ्रूण हत्या के बढ़ते मामले इस छवि को दागदार बना रहे हैं।  रूढ़िवादी मानसिकता के कारण भारत कुरीति का भी शिकार है। दुर्भाग्य से ये कुरीतियां इस देश की लक्ष्मी पर ग्रहण लगा रही हैं। 

आज लड़कियाँ लड़कों के समकक्ष ही नहीं, बल्कि उनसे आगे भी निकल चुकी हैं। किरण बेदी, किरण मजूमदार, कल्पना चावला, पीटी ऊषा, सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल। ये ऐसे नाम हैं, जिन्होंने न सिर्फ भारत में बल्कि अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी ख्याति प्राप्त की है। 

ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता ने विश्व में भारतीय सुंदरता और विवेक का परचम फ़हराया। एकता कपूर ने ही भारतीय टेलीविजन धारावाहिकों का स्वरूप बदल डाला। हाल के वर्षों में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में भी महिलाओं के प्रतिशत में सुखद बढ़ोतरी देखने को मिली है। 
आज नारी घर की चारदीवारी में बंद एक अबला नहीं, बल्कि एक सशक्त व्यक्त्तिव की मालकिन बन गई है। खेल, व्यापार, फिल्म, राजनीति, वकालत, चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में नारी शक्ति का भी बोलबाला है। 

सरकार भी महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए नित नए प्रयास कर रही है। 'बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ' अभियान इनमें से प्रमुख है। सरकार लड़कियों के संरक्षण के लिए इसे प्रोत्साहित कर रही है। बेटियों के जन्म पर सरकारी अस्पतालों में बधाई गीतों के कार्यक्रम इसी कड़ी का हिस्सा हैं। लड़कियों को पढ़ाई के प्रति प्रोत्साहित करने के लिये भी कई योजना हैं।

 इस अभियान का मुख्य उद्देश्य विभिन्न इलाकों में जाकर कन्या भ्रूण हत्या रोकने के प्रति लोगों को जागरूक बनाना है। विशेषकर महिलाओं को, ताकि वे इस घिनौने, दंडनीय अपराध के खिलाफ आवाज उठा सकें। जब तक समाज के लोग नहीं चेतेंगे और इसके ‍खिलाफ आवाज नहीं उठाएँगे, तब तक न जाने कितनी ही मासूमों का गर्भ में ही गला घोंटा जाता रहेगा। अगर गलती से वे इस दुनिया में आ भी गईं तो उनकी नन्हीं आँखों को खुलने से पहले ही बंद किया जाता रहेगा।
इतना सब होने के बावजूद कई लोग इसी संकीर्ण मानसिकता का शिकार हैं कि लड़का ही बेहतर है। कई ऐसे जिले हैं, जहाँ लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या केवल 850 ही रह गयी है। मध्यप्रदेश के साथ ही देश के कई राज्यों में भी यही स्थिति है। हरियाणा की स्थिति काफी चिंताजनक है। इस बढ़ते लिंगानुपात के अगर यही हालात कायम रहे तो  ऐसा दिन आएगा जब देश के 2.50 करोड़ पुरुष शादी से वंचित रह जाएँगे और मजबूरन उन्हें अपनी जिंदगी अकेले ही गुजारना पड़ेगी।

 शिक्षित लोग भी नहीं बदलते मानसिकता:
आमतौर पर लोगों का मानना है कि ऐसी विचारधारा उच्च शिक्षा के अभाव के कारण है लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि आज पढ़े-लिखे लोगों में यह विचारधारा और ज़्यादा तेजी से बढ़ती जा रही है। 

इन आँकड़ों ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया है कि लिंगानुपात की यह असमानता हमें आखिर कहाँ ले जा रही है। आधुनिक समाज में मध्ययुगीन कुरीतियाँ सोचने को विवश करती हैं कि क्या आज भी भारत में बेटी का जन्म समाज में उतना ही स्वीकार्य तथा उत्सवी है जितना बेटों का...।

लेखिका
यतिका पुंडीर,
प्राथमिक विद्यालय कमालपुर,
विकास खण्ड-रजपुरा,
जनपद-मेरठ।

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