जाने कितने अंधियारों को

जाने कितने अंधियारों को
पार किया जीवन में तुमने
कभी न तुम विस्मित थीं
और कभी न विचलित थीं।

जब भी तम गहराया था
आत्मदीप बन गई थीं तुम
सुकुमारों के जंगल में
सदा रहीं निर्भया सी तुम।

श्वेत वसन पहने समाज ने
सदा तुम्हें अनुगामी रखा
तुमने भी अपने अंतस को
झीनी चादर से ढक रखा।

मर्यादा की दहलीजों को
पाँव की जिसने बेड़ी समझा
उस पौरुष के अनाचार को
तुमने कभी नेक ना समझा।

बीते कितने ही वसंत
पर अभिमान न उसका बदला
मिटी कई संस्कृतियाँ लेकिन
पुरुष का स्वाभिमान न बदला।

कैकयी को कदाचार की
हर युग में है मूरत माना
ढहाये जुलम सिया पर जिसने
पुरूषोत्तम सम उसको माना।

विषम रहीं कितनी ही राहें
धीर धरा सी बनी रहीं तुम
द्वापर, त्रेता, सतयुग बीते
नीर झीर सी सदा रहीं तुम।

हर इक युग में तुमने खुद को
अग्नि परीक्षा से है गुजारा
अत्याचार सहे जग के
लेकिन तुमने मन ना हारा।

सीता, राधा, सती, शकुन्तला
सबने दंश समाज का झेला
किन्तु विवशता के रहते भी
जीवन को हँस-हँसकर झेला।

आज सदी इककीसवीं आई
लेकिन किरण न उजली लाई
जैसी स्थिति पहले थी
आज वही स्थिति है आई।

न्याय और समता की बातें
कोरे कागज की बातें हैं
नर से नारी के जीवन के
सिर्फ स्वार्थवश ही नाते हैं।

पहले से अबकी नारी में
बदलाव यही एक भारी है
पहले थोड़ा सकुचाती थी
आज मनुज पर भारी है।

रचयिता
डॉ0 रंजना वर्मा "रेन",
प्राथमिक विद्यालय बूढ़ाडीह-1,
विकास खण्ड-भटहट, 
जनपद-गोरखपुर।

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