घायल धरती करे पुकार

मानव जीवन में अगर कोई सम्बंध सर्वाधिक उदात्त, गरिमामय, पावन और प्रेमपूर्ण है तो वह है माँ और पुत्र का सम्बंध। एक माँ कभी भी अपनी संतान को भूखा-प्यासा, बेबस और कष्ट का जीवन जीते नहीं देख सकती और ऐसा कोई पुत्र भी नहीं होगा जो माँ की कराह सुन व्याकुल और व्यथित न हो। यही कारण है कि ऋषियों ने पृथ्वी की वन्दना माता के रूप में की। ‘माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः‘ अथर्ववेद का यह सूत्र वाक्य धरती और मानव के सम्बंधों की न केवल गरिमामय व्याख्या करता है बल्कि धरती के प्रति मानवीय कर्तव्यों का निर्धारण भी। न केवल मानव के जीवन यापन के लिए बल्कि पशु-पक्षियों सहित लाखों करोड़ों छोटे-बड़े जीवों के लिए धरती ने उपहार दिया है। लेकिन आज वह धरती अपने पुत्रों की करनी से घायल हो रुदन कर रही है। अधिकाधिक प्राप्त कर लेने की होड़ ने मनुष्य को अंधा बना दिया है और वह अपने ही पैरों में स्वयं कुल्हाड़ी मार रहा है। धरती संकट में है, धरती कराह रही है पर हम मौन हैं, क्यों?
  मानव के अविवेकी और असंयमित आचरण से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है। अन्तरराष्ट्रीय संस्था आईपीसीसी के एक अध्ययन के अनुसार, पिछली सदी में धरती का औसत तापमान 1.4 फारनेहाइट बढ़ा है। यह वृद्धि मौसम और जलवायु के विनाशकारी परिवर्तन का कारण बनी है। तीव्र औद्यौगिकीकरण, ग्रीन हाउस गैसों, जंगलों की कटान और भौतिकवादी जीवन शैली के कारण ध्रुवों और पहाड़ी चोटियों की बर्फ पिघल रही है और समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है। यह बढ़ता जल स्तर तटीय और द्वीपीय छोटे देशों को एक दिन लील लेगा। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए दिसम्बर 1997 में क्योटो प्रोटोकाल लाया गाया था जिसे 160 देशों ने स्वीकार करते हुए कमी करने का संकल्प लिया। लेकिन अकेले 80 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले अमेरिका ने इसे स्वीकार नहीं किया। अगर मनुष्य ने अपने आचरण में सुधार नहीं किया तो एक दिन यह धरती खत्म हो जायेगी और हमारे पास प्रायश्चित करने का समय एवं विकल्प भी नहीं बचा होगा।
यह प्लास्टिक युग है। भारतीय समाज अति आधुनिकता के व्यामोह में ‘यूज एण्ड थ्रो‘ जीवन शैली के भंवरजाल में फंसा प्लास्टिक कचरा के रूप हजारों टन कूड़ा प्रतिदिन घरों से बाहर फेंक रहा है। इस प्लास्टिक में से अधिकांश रिसायकिल नहीं हो पाता। यह गलता नहीं है और अपने अवयवों में टूटने में 1000 साल लगाता हैं। प्लास्टिक के बिना आज जीवन की कल्पना बेमानी लगती है। एक आँकड़े के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष 50 मीट्रिक टन प्लास्टिक  का निर्माण होता है। विश्व में 10 करोड़ टन प्लास्टिक का उत्पादन अकेले अमेरिका प्रतिवर्ष करता है और एक करोड़ किलोग्राम प्लास्टिक कूडे़ का उत्सर्जन भी। वहीं इटली द्वारा सर्वाधिक प्लास्टिक थैलियों की खपत की जाती है जो एक खरब प्रतिवर्ष है। पाॅलीथीन थैलियों को जलाने से निकली कार्बन और कार्बन मोनो ऑक्साइड, रिफ्रिजरेटर और शीत भंडारण केन्द्रों से उत्सर्जित क्लोरो फलोरो कार्बन से सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करने वाली ओजोन परत में बड़े-बड़े छेद हो गये हैं और हम हैं कि अपनी हवस में अन्धे हो ओजोन परत के इस नुकसान और विनाश से बेखबर मदहोश पड़े हैं। 

प्रति एकड़ पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधाधुंध प्रयोग से मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरा शक्ति तो नष्ट हुई ही है बल्कि माटी भी जहरीली हो गई है। इस जहर के कारण मिट्टी को खाकर उसे खाद में बदलने वाले किसानों के मित्र केंचुआ और अन्य छोटे कीट अब नहीं दिखते। दूध, अन्न, सब्जियाँ और भूगर्भ जल प्रदूषित हुआ है। परिणाम त्वचा रोग, हैजा, टायफायड, मस्तिष्क ज्वर, फाइलेरिया, दमा जैसे रोग जडें जमा रहे हैं और महामारी का रूप ले रहे हैं। कल-कारखानों से निकलने वाला दूषित जल बिना किसी ट्रीटमेंट के सीधे नदियो में डाला जा रहा है। यमुना आज दिल्ली आगरा में गंदे नाले का रूप ले चुकी है। गंगा का जल अपना औषधीय गुण खो चुका है। गंगाजल पीने लायक नहीं बचा। गोमती अस्तित्व बचाये रखने को जूझ रही है। 

यही हाल कमोबेश अन्य नदियों का भी है। वरूणा और असी नदियों के चतुर्दिक बसी होने के कारण यह नगरी वाराणसी कहलाई लेकिन आज दोनोे नदियाँ शहर का मल-मूत्र और कचरा ढोने को विवश हैं। नदियाँ कारखानों का अपशिष्ट बहाने के माध्यम बन कर रह गई हैं।
तथाकथित विकास के नाम पर बड़े बाँध बनाकर नदियों के प्राकृतिक प्रवाह को बाँधा गया। बड़े बाँधों के बनने से जैव विविधता खत्म हुई है। पहाड़ के सीने में उग आए कंक्रीट के जंगल ने प्राकृतिक परिवेश पर आघात किया है। बड़ी संख्या में विस्थापन हुआ है। विस्थापित लोगों का दर्द दूसरा कभी नहीं समझ सकता। अपनी जमीन छूटने की टीस की भरपाई कोई मुआवजा नहीं कर सकता। विस्थापन की पीड़ा साझा करते हुए शिक्षाविद् एवं संस्कृतिकर्मी महेश पुनेठा कहते हैं, ‘‘केवल गांव नहीं छूटा है बल्कि छूटा है माटी से अपनेपन का प्रेमपगा सम्बंध। लोक संस्कृति में रचे-बसे जन जन के भावों का बिखराव है यह, जिसे समेटा नहीं जा सकता। क्योंकि संस्कृति एक दिन में नहीं बना करती, सदियाँ लगा करती हैं। मुआवजे से माटी की महक नहीं खरीदी जा सकती। मन में लगे घावों पर हमदर्दी का कोई मरहम नहीं बल्कि अपनी माटी का लेप चाहिए। जन, जल, जंगल, जमीन और जानवर से भावात्मक नाता होता है। यह अपनी जड़ों से कटना है, टूटना है।‘‘ सत्य यही है कि सरकार ने पानी को कॉरपोरेेट जगत को बेच दिया। देखना है, हवा का बिकना कब तक बचता है।
 धरती को बचाये रखने के लिए ही सितम्बर 1969 में सिएटल में अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन ने 1970 के बसन्त में पर्यावरण को लेकर राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन की घोषणा की ताकि लोग पर्यावरण की हो रही क्षति को समझ सकें। 1990 में पहली बार अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर इसे मनाने का निश्चय किया जिसमें 141 देशों के 20 करोड़ लोगों की सहभागिता रही। हालांकि, 21 मार्च 1970 को संघ के तत्कालीन महासचिव यू थाॅट ने ‘पृथ्वी दिवस‘ को अन्तरराष्ट्रीय समारोह स्वीकार किया था। 1992 में रियो डी जिनेरियों में संयुक्त राष्ट पृथ्वी सम्मेलन हुआ। ग्लोबल वार्मिंग के प्रति चिंता व्यक्त करते हुए स्वच्छ ऊर्जा के प्रयोग को बढावा देने का संकल्प लिया गया। 2009 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाने का निर्णय लिया। चीन, पाकिस्तान, भारत और अमेरिका सहित कई देशों ने पृथ्वी दिवस के सन्दर्भ में पर्यावरण के महत्व को स्वीकारते हुए विभिन्न मूल्य वर्ग के डाक टिकट जारी किए हैं। यदि हम धरती को बचाना चाहते हैं और चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ी के हाथों में एक हरी-भरी सदानीरा और सुवासित वसुन्धरा सौपें तोे हमें अपनी दैनन्दिन जीवनचर्या पूर्णरूपेण बदलनी होगी। हमें प्रकृति की ओर लौटना होगा। बाजार से सामान लाने के लिए घर से जूट या कपड़े के बने थैले उपयोग में लाएँ। अनाज भण्डारण के लिए प्लास्टिक बोरियों की बजाय जूट के बोरे इस्तेमाल करें। रोजमर्रा के काम जैसे किराना, शाक-भाजी की खरीददारी में कागज के लिफाफों का प्रयोग करें जो किसी को रोजगार देगा और हमें संतुष्टि। किसानों को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशको की बजाय जैविका खाद और इको फ्रेंडली देशी कीटनाशकों के इस्तेमाल के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करें। पहल खुद से शुरु करनी होगी। विश्वास करिए, एक चलना आरम्भ करेगा तो साथ में लोग जुड़ते चलें जायेंगे। 
  पहाड़ों को हमने काट डाला सपाट कर दिया। मन नहीं भरा तो सैकड़ों मीटर तक नीचे खोदकर पत्थर निकाल लिए। हमने धरती माता की देह में अनगिन घाव दे दिए हैं। मरहम कौन लगायेगा? उत्तर में कोई जिम्मेदार स्वर उभरता सुनाई नहीं पड़ता। आज धरती कराह रही है। वह करुण याचना कर रही है। हम कैसी संतान हैं कि हमें धरती का यह करुण रूदन सुनायी नहीं देता। या फिर हम स्वार्थवश अनसुना कर रहे हैं।  धरती की हरीतिमा को, उसके सौन्दर्य को हमारे लालच ने निगल लिया है। जहां कभी हरे भरे खेत थे, जहाँ फसलें हवा के झोंके के साथ नाचती इठलाती थीं, जहाँ मनुज मन प्रकृति की गोद में दो पल बैठ कर आलौकिक आनन्द प्राप्त करता था, आज वह बंजर है, विषाक्त है। आज वहाँ फूल नहीं, धूल है रेत है। वहाँ जीवन का स्पन्दन नहीं, चीत्कार है। केवल एक दिन पृथ्वी दिवस मनाये जाने भर से परिवर्तन होने वाला नहीं है। हमें हर दिन पृथ्वी दिवस मनाना होगा और प्रकृति के साथ चलना होगा, जीना होगा। तभी यह धरा बचेगी और हम भी । 

लेखक पर्यावरण, महिला, लोक संस्कृति, इतिहास एवं शिक्षा के मुद्दों पर दो दशक से काम कर रहे हैं।

लेखक
प्रमोद दीक्षित ʺमलयʺ
सह-समन्वयक - हिन्दी,
बीआरसी नरैनी , जिला - 
बाँदा
79 ⁄ 18‚ शास्त्री नगर‚
अतर्रा – 210201‚ जिला– बाँदा‚ उत्तर प्रदेश
Mob. 09452085234
email :  pramodmalay123@gmail.com




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