74/2024, बाल कहानी -24 अप्रैल


बाल कहानी- अनोखी मित्रता
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राजा रोमपाद अयोध्या के चक्रवर्ती राजा दशरथ के बहुत ही घनिष्ठ मित्र थे। राजा रोमपाद के कोई सन्तान नहीं थी। एक बार राजा रोमपाद अपने मित्र से मिलने अयोध्या पहुँचे। राजा दशरथ ने अपने मित्र को आया देखकर उनका बहुत स्वागत और सम्मान किया। भोजनोपरान्त जब दोनों मित्र वार्तालाप कर रहे थे, तभी वहाँ कक्ष में शान्ता ने प्रवेश किया, जो खेलते-खेलते वहाँ अचानक पहुँच गयी थी। उस कन्या को देखकर रोमपाद ने उसे अपने पास गोद में बिठाकर पूछा कि-, "बेटी! तुम किसकी पुत्री हो?" उसने उत्तर दिया कि-, "मैं आपकी ही पुत्री हूँ।" यह सुनकर दोनों मित्र एक-दूसरे की ओर देखकर आश्चर्य से भर गये। रोमपाद ने कहा कि-, "मित्र! आज से यह मेरी पुत्री हुई।" राजा दशरथ ने उसी समय अपनी पुत्री अपने मित्र रोमपाद को गोद दे दी।
रोमपाद पुत्री को लेकर अपने नगर लौट आये और उसका भली-भाँति पालन-पोषण और उचित शिक्षा का प्रबन्ध करते हुए उसकी देख-रेख करने लगे। पुत्री के आने पर उनका आँगन जैसे बगिया के फूलों की तरह महक उठा था। धीरे-धीरे शान्ता बड़ी होने लगी और युवावस्था की दहलीज पर कदम रखने लगी।
एक दिन उस नगर में अकाल पड़ा और लोग भूखों मरने की कगार पर पहुँच गये। राजकोष खाली होने लगा। राजा रोमपाद की समझ में कुछ नहीं आया कि क्या करें? सभी सभासदों और मन्त्रियों से गहन विचार-विमर्श किया गया। उसी समय एक बूढ़े मन्त्री ने कहा कि-, "उपाय तो है लेकिन बहुत ही कठिन है।" सभी के पूछने पर उसने बताया कि-, "राजन अगर श्रृंगी ऋषि को यहाँ ले आयें तो उनके राज्य की सीमा में प्रवेश करते ही पानी बरसने लगेगा।" राजा ने मन्त्रियों से सुझाव के बाद उन्हें पैदल गरीब याचक की तरह जाकर, राज्य की श्रेष्ठ सुन्दरियों के नृत्य-संगीत एवं वादन से रिझाकर प्रसन्न किया। ऋषि ने प्रसन्न होकर आना स्वीकार किया।
ठीक वैसा ही हुआ। श्रृंगी ऋषि के राजा रोमपाद के नगर की सीमा में प्रवेश करते ही बारिश होने लगी। राजा ने महल में उनका श्रेष्ठ स्वागत सत्कार किया। पुत्री शान्ता को श्रृंगी ऋषि ने जैसे ही देखा तो मुस्कुरा उठे। 
एक दिन यज्ञ पूर्ण कर जब श्रृंगी ऋषि जाने लगे, तब राजा ने उन्हें दक्षिणा देनी चाही। श्रृंगी ऋषि ने दक्षिणा में राजा दशरथ की उपस्थिति में शान्ता कन्या का वरण किया और दोनों अपने आश्रम लौट आये।
इधर राजा दशरथ पुत्री के जाने पर सूने आँगन को देखकर दुःखी रहने लगे थे। एक दिन उन्होंने अपने मित्र रोमपाद को अपनी व्यथा सुनायी। रोमपाद और दशरथ दोनों मित्र श्रृंगी ऋषि के आश्रम पर गये। शान्ता ने जब अपने दोनों को आते देखा तो वह बहुत ही प्रसन्न हुई। राजा दशरथ ने अपनी पुत्री को अपनी व्यथा बतायी। श्रृंगी ऋषि उस समय बाहर गये हुए थे। दोनों वहीं रुक गये। ऋषि के आने पर दोनों ने उन्हें प्रणाम किया और उनके पूछने पर उन्होंने सारी बात कह सुनायी। पहले तो ऋषि ने जाने से मना कर दिया, फिर अपनी पत्नी शान्ता के आग्रह करने पर वह पुत्रेष्टि यज्ञ कराने हेतु तैयार हो गये।
चारों लोग शुभ घड़ी में अयोध्या पहुँचे। शान्ता को आया देखकर तीनों माताओं को बहुत ही प्रसन्नता हुई। शुभ समय में यज्ञ प्रारम्भ हुआ। यज्ञ की पूर्णाहुति पर प्रकटे अगिनि चरु कर लीन्हे अर्थात अग्नि देव खीर लिए प्रकट हुए, जिसे तीनों रानियों में राजा दशरथ ने समान भाग करके वितरित किया। उसी समय सुमित्रा के हाथ की खीर एक चील झपटकर ले गयी, जो किष्किन्धा पर्वत पर तपस्या कर रही अन्जनी के हाथों में गिरी। अन्जनी ने प्रसाद समझकर प्रेम से ग्रहण किया, फलस्वरूप हनुमानजी का जन्म हुआ। इधर कौसल्या और कैकेयी ने अपने भाग से आधा-आधा भाग निकालकर सुमित्रा को दिया, जिससे उनके दो पुत्र लक्ष्मण और शत्रुघ्न हुए और कौसल्या, कैकेयी के एक-एक पुत्र राम और भरत। यज्ञ पूर्ण करके ऋषि अपनी पत्नी शान्ता के साथ विदा होकर अपने आश्रम पर लौट आये और राजा रोमपाद भी अपने मित्र से विदा लेकर अपने नगर लौट आये।

संस्कार सन्देश-
हमें अपने से श्रेष्ठ जनों का हमेशा आदर और सम्मान करना चाहिए।

लेखक- 
जुगल किशोर त्रिपाठी
प्रा० वि० बम्हौरी(कम्पोजिट)
मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)
कहानी वाचक
नीलम भदौरिया
जनपद- फतेहपुर 

✏️ संकलन
📝टीम मिशन शिक्षण संवाद
नैतिक प्रभात

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