भारत माता के दीप
भारत माता की देहरी पर जलता वो दीपक प्यारा था,
दीपक से दीप अनन्त जले, तम निशा का जिससे हारा था।
भारत माता की साँसों में, अरिदल के बैठे पहरे थे,
उत्तुंग हिमालय की घाटी में घाव गहरे - गहरे थे,
मन में ज्वाला भर माँ के सुत, निज प्राणाहुति देते थे,
आ जाए आंधी मानस में वो भाव विभूति देते थे,
तब कलम के एक सिपाही का सोजे वतन हुंकारा था,
दीपक से दीप अनन्त जले तम निशा का जिससे हारा था।
गाँव - गाँव में जमीदार जनता के रक्त के शोषक थे,
गोदान बिना होरी जैसे, जन दीन सभ्यता पोषक थे,
इच्छाएँ गिरवी थीं जिनकी, आँसू ही उनकी थाती थे,
माँ बहनों के तन पर संस्कृति की गहरी छाई उदासी थी,
तब कलम के एक सिपाही ने जनमानस को झंकारा था।
दीपक से दीप अनन्त जले, तम निशा का जिससे हारा था।
कृषकों के घावों से रिसते मर्मों की व्यथा निराली थी,
श्रम ने साधना विरल कर के हरियाली चुनर उड़ा ली थी।
नियमों के बंधन तोड़-तोड़ रंग रूप बदल तस्वीर रही,
शिक्षा की ज्योति जला नारी पैरों से तोड़ जंजीर रही।
तब कलम के एक सिपाही ने जयहिंद का नाम पुकारा था,
दीपक से दीप अनन्त जले, तम निशा का जिससे हारा था।
रचयिता
सीमा मिश्रा,
सहायक अध्यापक,
उच्च प्राथमिक विद्यालय काज़ीखेडा,
विकास खण्ड-खजुहा,
जनपद-फतेहपुर।
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