श्रृंगार धरा का
मत रूप बिगाड़ो प्रकृति का,
धरती माँ का श्रृंगार है ये।
समझो मोल जरा इसका,
जीवन का आधार है ये।
ओ ओ .....
कल-कल बहतीं नदियाँ झरने,
धरा को शीतल करते हैं।
दिन रैन हैं मरते दम तक,
ये कष्ट हमारे हरते हैं।
ओ ओ .......
हरे-भरे ये पेड़ और पौधे,
धरा के तन को छिपाते हैं।
हरी-हरी और फूलों से भरी,
सुन्दर सी चुनरी ओढ़ाते हैं।
ओ ओ ओ ओ.......
जीव और जन्तु प्यारे-प्यारे,
प्रकृति के रूप निराले हैं।
सबको है हक जीने का,
हम भी तो प्रकृति के हवाले हैं।
ओ ओ .....
प्रकृति से है धरा पे जीवन,
प्रकृति से ही साँसें हैं।
उजड़ गई प्रकृति प्यारी,
तो ना खैर हमारी है।
ओ ओ.......
करनी है सुरक्षा प्रकृति की,
मिलकर संकल्प उठाएँ हम।
अपने नन्हें मुन्नों की खातिर,
कुछ तो कर के जाएँ हम।
ओ ओ......
रचनाकार
सपना,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय उजीतीपुर,
विकास खण्ड-भाग्यनगर,
जनपद-औरैया।
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