'संस्कृत वाग्व्यवहार कार्यशाला'
(SCERT व उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के संयुक्त तत्त्वावधान में आयोजित)
'संस्कृत वाग्व्यवहार कार्यशाला'
(20-24 दिसंबर 2018)
(स्थान : DIET, बरेली)
महत्त्वपूर्ण प्रेरक बिन्दु
* हिंदी सुरक्षित रखनी है तो संस्कृत की ओर आना पड़ेगा।
* हम ऋषियों की संतानें हैं इसीलिए संस्कृत आसानी से समझ तो लेते ही हैं, वह हमारे रक्त में है।
* जिस प्रकार नल का पानी उतर जाने पर उसमें मामूली लीकेज बंद करने से या फिर ऊपर से मात्र थोड़ा-सा जल डालने से वह नल भरपूर जल देने लगता है, उसी प्रकार हमें सिर्फ थोड़ा सा अभ्यास-प्रयास करना है, हम ऋषि-संतानों में सुप्त पड़ा संस्कृत-भंडार सहज ही जागृत हो जायेगा।
* योगः में विसर्ग का उच्चारण करते ही कपालभाति हो जाता है। विदेशी तो योगः बोल नहीं पाते, किन्तु हम योगः को योगा क्यों बोलते हैं!
* कोई भी अन्य भाषा बोलने से व्यक्ति हमारे क्षेत्र या प्रांत को जान जाता है किंतु संस्कृत बोलने पर नहीं जान पाता क्योंकि संस्कृत सम्पूर्ण भारतवर्ष की भाषा है।
* संस्कृत संभाषण से रक्त-सञ्चार उत्तम होने से रोगों से भी मुक्ति मिलती है।
* बचपन से ही संस्कृत पढ़ने-बोलने से IQ स्तर भी बढ़ता है।
* जिस प्रकार हमने हिंदी अनुवाद पद्धति से नहीं सीखी, उसी प्रकार संस्कृत को भी शब्दों के अनुवाद द्वारा नहीं, व्यावहारिक बोलचाल के सीधे तरीके से सीखें। शुरू में थोड़ी असुविधा होगी, किन्तु आदत बिगड़ेगी नहीं।
* भाषा के चार कौशल श्रवणं, भाषणं, पठनं, लेखनं एक सीढ़ी की भाँति हैं जिनमें श्रवण-भाषण से आरम्भ करेंगे तो ऊर्ध्वगति होगी और लेखन-पठन से आरंभ करेंगे तो अधोगति होगी।
* यदि नीम की जड़ चाहिए तो पहले नीम का पेड़ खोजेंगे ऊपरी तने-पत्ती की पहचान से। इसी प्रकार संस्कृत ज्ञान-रूपी जड़ को पहचानने-पाने हेतु संभाषण रूपी तने-पत्ती द्वारा लोगों को पहले आकर्षित करना आवश्यक है। पत्ती-तना न दिखने पर जड़ भी अदृश्य ही रह जायेगी।
* संभाषण की उपयोगिता दर्शाती कथा : एक गुरु ने विदाकाल में अपने दो शिष्यों को मुट्ठी-भर चने देकर उन्हें संरक्षित रखने को कहा। पहले शिष्य ने उन्हें बर्तन में बाँधकर रखा, पूजा की किन्तु दीर्घकाल में वे घुन गये। दूसरे शिष्य ने उन्हें खेत में रोपा और सहस्त्रों-लक्ष गुणा कर लिया।
अतः संरक्षण का अर्थ एक जगह रखना नहीं, प्रसार करना है जो संभाषण से होगा।
* गलत संस्कृत बोलने पर भी किसी को टोको मत। जैसे बच्चे के तुतलाने पर भी उसका उत्साहवर्द्धन करते हैं, हतोत्साहित नहीं करते।
* और प्रारंभ में कुछ उपहास भी उड़े तो कोई बात नहीं, उपहास का अर्थ है कि आप सफलता की ओर बढ़ रहे हैं। आखिर आगे हमें बढ़ना है, उपहास उड़ाने वालों को नहीं। आगे चलकर वही लोग हमें इन कार्यों का प्रमुख मान लेंगे।
* राष्ट्रनिर्माण के पाँच अंग : भाषा, जन, संस्कृति, भूभाग, इतिहास। अतः भाषा अत्यंत महत्त्वपूर्ण।
* अंग्रेजों ने पहले संस्कृत-संस्कृति रूपी हमारे माता-पिता को आघात पहुँचाया, उनकी चीजों को अपने नाम करवा लिया और फिर हमें अपने रंग में पालकर हमसे कहा कि तुम्हारे पास कुछ नहीं था, सब हमने बनाया। और हम उनको सही मानकर स्वयं को हेय समझने लगे।
* अंग्रेजों ने अंग्रेज़ी पढ़ने वालों को अधिक वेतन दिया। लोगों ने अग्रेज़ी पढ़ी। अंग्रेज़ी पढ़ेंगे तो अच्छी नौकरी मिलेगी। लेकिन बनेंगे नौकर ही क्योंकि मालिक तो वही अंग्रेज़ थे और आज भी वही नौकरी-नौकर-वृत्ति वाली मानसिकता कार्य कर रही है।
* राम से रामः ऐसे ही नहीं बना। राम से रामस, फिर रामर, फिर रामः (गहरा प्रक्रियागत विज्ञान)
* शब्द का मूल प्रातिपदिक कहलाता है जैसे गजः का प्रातिपदिक गज।
* भाषा के तीन भाग - वाक्य, पद, वर्ण
* वर्णानां समूहः - वर्णमाला
* वर्ण के दो भेद - स्वर (अच्), व्यंजन (हल्)
1. स्वराः (स्वयं राजन्ते इति स्वराः)
2. व्यंजनानि (व्यंज्यन्ते एभिरिति व्यंजनानि)
* स्वर के 3 भेद :
1. ह्रस्व (एकमात्रिक)
2. दीर्घ (द्विमात्रिक)
3. प्लुत (त्रिमात्रिक)
* व्यंजन के भेद :
1. स्पर्श वर्गीय (जिनमें जीभ स्पर्श होती है)
(क) कंठव्य (क वर्ग)
(ख) तालव्य (च वर्ग)
(ग) मूर्धन्य (ट वर्ग)
(घ) दंतव्य (त वर्ग)
(च) ओष्ठव्य (प वर्ग)
2. अन्तःस्थ : य, र, ल, व
3. ऊष्म : श, ष, स, ह
* अयोगवाह : अनुस्वार, विसर्ग
* सुबंताः (सुप् प्रत्यया येषां अन्ते, ते सुबंताः)
समस्त शब्दरूप सुबंताः कहलाते हैं।
* सुबंताः के 5 प्रकार : संज्ञा, सर्वनाम, अव्यय, संख्या, विशेषण
* संज्ञा के दो भेद :
1. अजंताः (अंत में स्वर वाले संज्ञा शब्द)
(अच् अन्ते यस्य, सः अजंतः)
2. हलन्ताः (अंत में व्यंजन वाले संज्ञा शब्द)
* माहेश्वर सूत्राणि (14) (शिव के डमरू से निकले)
* (श, ष, स के वाणी-विकार का उपचार)
1.ष हेतु : ट ट ट ट बुलवाकर अचानक ष बुलवाएं
2. श हेतु : च च च च बुलवाकर अचानक श बुलवाएं
3. स हेतु : त त त त बुलवाकर अचानक स बुलवाएं
* उक्त के अतिरिक्त अनेक गीत-श्लोक-गतिविधि माध्यम से सम्पूर्ण वातावरण संस्कृतमय आनंद से सराबोर रहा।
(प्रशिक्षणदाता : सर्वश्री भावेश जोशी, विश्राम जी, सतीश शर्मा जी एवं सहयोगीगण)
'संस्कृत वाग्व्यवहार कार्यशाला'
(20-24 दिसंबर 2018)
(स्थान : DIET, बरेली)
महत्त्वपूर्ण प्रेरक बिन्दु
* हिंदी सुरक्षित रखनी है तो संस्कृत की ओर आना पड़ेगा।
* हम ऋषियों की संतानें हैं इसीलिए संस्कृत आसानी से समझ तो लेते ही हैं, वह हमारे रक्त में है।
* जिस प्रकार नल का पानी उतर जाने पर उसमें मामूली लीकेज बंद करने से या फिर ऊपर से मात्र थोड़ा-सा जल डालने से वह नल भरपूर जल देने लगता है, उसी प्रकार हमें सिर्फ थोड़ा सा अभ्यास-प्रयास करना है, हम ऋषि-संतानों में सुप्त पड़ा संस्कृत-भंडार सहज ही जागृत हो जायेगा।
* योगः में विसर्ग का उच्चारण करते ही कपालभाति हो जाता है। विदेशी तो योगः बोल नहीं पाते, किन्तु हम योगः को योगा क्यों बोलते हैं!
* कोई भी अन्य भाषा बोलने से व्यक्ति हमारे क्षेत्र या प्रांत को जान जाता है किंतु संस्कृत बोलने पर नहीं जान पाता क्योंकि संस्कृत सम्पूर्ण भारतवर्ष की भाषा है।
* संस्कृत संभाषण से रक्त-सञ्चार उत्तम होने से रोगों से भी मुक्ति मिलती है।
* बचपन से ही संस्कृत पढ़ने-बोलने से IQ स्तर भी बढ़ता है।
* जिस प्रकार हमने हिंदी अनुवाद पद्धति से नहीं सीखी, उसी प्रकार संस्कृत को भी शब्दों के अनुवाद द्वारा नहीं, व्यावहारिक बोलचाल के सीधे तरीके से सीखें। शुरू में थोड़ी असुविधा होगी, किन्तु आदत बिगड़ेगी नहीं।
* भाषा के चार कौशल श्रवणं, भाषणं, पठनं, लेखनं एक सीढ़ी की भाँति हैं जिनमें श्रवण-भाषण से आरम्भ करेंगे तो ऊर्ध्वगति होगी और लेखन-पठन से आरंभ करेंगे तो अधोगति होगी।
* यदि नीम की जड़ चाहिए तो पहले नीम का पेड़ खोजेंगे ऊपरी तने-पत्ती की पहचान से। इसी प्रकार संस्कृत ज्ञान-रूपी जड़ को पहचानने-पाने हेतु संभाषण रूपी तने-पत्ती द्वारा लोगों को पहले आकर्षित करना आवश्यक है। पत्ती-तना न दिखने पर जड़ भी अदृश्य ही रह जायेगी।
* संभाषण की उपयोगिता दर्शाती कथा : एक गुरु ने विदाकाल में अपने दो शिष्यों को मुट्ठी-भर चने देकर उन्हें संरक्षित रखने को कहा। पहले शिष्य ने उन्हें बर्तन में बाँधकर रखा, पूजा की किन्तु दीर्घकाल में वे घुन गये। दूसरे शिष्य ने उन्हें खेत में रोपा और सहस्त्रों-लक्ष गुणा कर लिया।
अतः संरक्षण का अर्थ एक जगह रखना नहीं, प्रसार करना है जो संभाषण से होगा।
* गलत संस्कृत बोलने पर भी किसी को टोको मत। जैसे बच्चे के तुतलाने पर भी उसका उत्साहवर्द्धन करते हैं, हतोत्साहित नहीं करते।
* और प्रारंभ में कुछ उपहास भी उड़े तो कोई बात नहीं, उपहास का अर्थ है कि आप सफलता की ओर बढ़ रहे हैं। आखिर आगे हमें बढ़ना है, उपहास उड़ाने वालों को नहीं। आगे चलकर वही लोग हमें इन कार्यों का प्रमुख मान लेंगे।
* राष्ट्रनिर्माण के पाँच अंग : भाषा, जन, संस्कृति, भूभाग, इतिहास। अतः भाषा अत्यंत महत्त्वपूर्ण।
* अंग्रेजों ने पहले संस्कृत-संस्कृति रूपी हमारे माता-पिता को आघात पहुँचाया, उनकी चीजों को अपने नाम करवा लिया और फिर हमें अपने रंग में पालकर हमसे कहा कि तुम्हारे पास कुछ नहीं था, सब हमने बनाया। और हम उनको सही मानकर स्वयं को हेय समझने लगे।
* अंग्रेजों ने अंग्रेज़ी पढ़ने वालों को अधिक वेतन दिया। लोगों ने अग्रेज़ी पढ़ी। अंग्रेज़ी पढ़ेंगे तो अच्छी नौकरी मिलेगी। लेकिन बनेंगे नौकर ही क्योंकि मालिक तो वही अंग्रेज़ थे और आज भी वही नौकरी-नौकर-वृत्ति वाली मानसिकता कार्य कर रही है।
* राम से रामः ऐसे ही नहीं बना। राम से रामस, फिर रामर, फिर रामः (गहरा प्रक्रियागत विज्ञान)
* शब्द का मूल प्रातिपदिक कहलाता है जैसे गजः का प्रातिपदिक गज।
* भाषा के तीन भाग - वाक्य, पद, वर्ण
* वर्णानां समूहः - वर्णमाला
* वर्ण के दो भेद - स्वर (अच्), व्यंजन (हल्)
1. स्वराः (स्वयं राजन्ते इति स्वराः)
2. व्यंजनानि (व्यंज्यन्ते एभिरिति व्यंजनानि)
* स्वर के 3 भेद :
1. ह्रस्व (एकमात्रिक)
2. दीर्घ (द्विमात्रिक)
3. प्लुत (त्रिमात्रिक)
* व्यंजन के भेद :
1. स्पर्श वर्गीय (जिनमें जीभ स्पर्श होती है)
(क) कंठव्य (क वर्ग)
(ख) तालव्य (च वर्ग)
(ग) मूर्धन्य (ट वर्ग)
(घ) दंतव्य (त वर्ग)
(च) ओष्ठव्य (प वर्ग)
2. अन्तःस्थ : य, र, ल, व
3. ऊष्म : श, ष, स, ह
* अयोगवाह : अनुस्वार, विसर्ग
* सुबंताः (सुप् प्रत्यया येषां अन्ते, ते सुबंताः)
समस्त शब्दरूप सुबंताः कहलाते हैं।
* सुबंताः के 5 प्रकार : संज्ञा, सर्वनाम, अव्यय, संख्या, विशेषण
* संज्ञा के दो भेद :
1. अजंताः (अंत में स्वर वाले संज्ञा शब्द)
(अच् अन्ते यस्य, सः अजंतः)
2. हलन्ताः (अंत में व्यंजन वाले संज्ञा शब्द)
* माहेश्वर सूत्राणि (14) (शिव के डमरू से निकले)
* (श, ष, स के वाणी-विकार का उपचार)
1.ष हेतु : ट ट ट ट बुलवाकर अचानक ष बुलवाएं
2. श हेतु : च च च च बुलवाकर अचानक श बुलवाएं
3. स हेतु : त त त त बुलवाकर अचानक स बुलवाएं
* उक्त के अतिरिक्त अनेक गीत-श्लोक-गतिविधि माध्यम से सम्पूर्ण वातावरण संस्कृतमय आनंद से सराबोर रहा।
(प्रशिक्षणदाता : सर्वश्री भावेश जोशी, विश्राम जी, सतीश शर्मा जी एवं सहयोगीगण)
रचयिता
प्रशांत अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
जिला बरेली (उ.प्र.)।
good effort
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