सावित्रीबाई फुले: आधुनिक भारत की प्रथम शिक्षिका
भारतवर्ष में 19वीं शताब्दी का उत्तरार्ध शैक्षिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आंदोलनों एवं समाज में व्याप्त अस्पृश्यता, बाल विवाह, सती प्रथा, कन्या भ्रूण हत्या एवं अशिक्षा के विरुद्ध लड़ाई का स्वर्णिम काल था। आज देश में शिक्षा का स्तर बढ़ा है, सबके लिए विकास के समान अवसर उपलब्ध हैं पर डेढ़ सौ साल पहले यह कल्पना करना भी बेमानी था कि कोई बालिका, शिक्षा के द्वार पर दस्तक दे सकती है।
हाँ, वहीं सावित्रीबाई फुले जिसे विश्व आधुनिक भारत की प्रथम शिक्षिका के रूप में जानता है।
3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले की खंडाला तहसील के नायगांव में एक पिछड़े वर्ग के परिवार में सावित्रीबाई का जन्म हुआ था। सावित्री को किसी स्कूल भेजने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि उस काल में तो वंचित एव पिछड़े वर्ग के बालकों को भी सामान्यतया स्कूल भेजने की कोई परम्परा नहीं थी। पिता खंदोजी नावसे पाटिल और माता लक्ष्मीबाई ने तत्कालीन परिस्थितियों एवं सामाजिक रीति-रिवाज के कारण 9 वर्ष की छोटी अवस्था में ही सावित्री का विवाह पुणे के 12 वर्षीय ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के साथ 1840 में कर दिया। ज्योतिराव भी पाँचवीं तक ही शिक्षा प्राप्त कर सके थे क्योंकि परिवार के पुश्तैनी फूलों के व्यवसाय एवं खेती के काम में सहयोग देने के लिए उन्हें स्कूल से निकाल लिया गया था। तो विवाह के बाद ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को पढ़ाना आरम्भ किया। उस दौर में किसी महिला का शिक्षा प्राप्त करना एक प्रकार से पापकर्म समझा जाता था। फलतः ज्योतिबा का विरोध शुरु हो गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और चोरी छिपे पढ़ाना-लिखाना जारी रखा। सावित्रीबाई और ज्योतिबा की एक रिश्तेदार सगुणाबाई खेत पर ज्योतिबा को दोपहर में खाना देने जाती थीं। ज्योतिबा ने वहीं खेत की मेंड़ पर आम के पेड़ के नीचे आम की पतली टहनी की कलम बनाकर दोनों को अक्षर ज्ञान कराया। किसे मालूम था कि उस खेत की जमीन में धूल पर उकेरे गये पहले अक्षर एक तेजस्विनी अग्नि को जन्म देने वाले थे जिसे समाज में व्याप्त भेदभाव, बंदिशें और गैरबराबरी की कलुष बेड़ियों को जलाकर महिलाओं एवं वंचित समाज के लिए विकास का एक राजपथ तैयार करना था जिस पर चलते हुए वे सिर उठाकर आत्मविश्वास और आत्मगौरव के साथ जी सकें। इस तरह खेत और घर पर सावित्री बहुत संघर्ष के साथ अक्षर ज्ञान कर सकीं। फिर बाद में एक ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी मिसेज मिशेल ने बालिकाओं के लिए 1840 में पुणे में छबीलदास की हवेली में एक नॉर्मल स्कूल प्रारम्भ किया तो सावित्री वहीं पढ़ने लगीं। वहीं पढ़ते समय सावित्री ने गुलामी प्रथा के विरुद्ध काम करने वाले थामस क्लार्कसन की जीवनी पढ़ी जिसमें अमेरिका के अफ्रीकी गुलामों के जीवन और संघर्ष की दर्दनाक दास्तान छपी थी। सावित्री समझ गयीं कि शिक्षा ही बदलाव का मजबूत औजार है क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति न तो अपने अधिकार जान सकता और न ही उनकी प्राप्ति के लिए लड़ाई लड़ सकता। इस किताब ने उनके अन्दर स्वयं पढ़ने की ललक तो जगायी ही बल्कि समाज की बालिकाओं को शिक्षित करने का एक स्वप्न भी दिया।
बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ने के लिए 1 जनवरी 1848 में ज्योतिबा के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की 9 बालिकाओं को लेकर भिड़ेवाड़ी, पुणे में कन्या विद्यालय स्थापित किया, जहाँ सगुणबाई ने भी शिक्षिका के रूप में काम किया। इस विद्यालय में बालिकाओं ने गणित, व्याकरण, भूगोल, भारत सहित यूरोप एवं एशिया के नक्शों की जानकारी, मराठों का इतिहास तथा नीति एवं बाल बोध विषयों को पढ़कर देश के शैक्षिक फलक में अपनी जीवन्त उपस्थिति दर्ज करायी। विद्यालय के लिए पुस्तकों का प्रबन्ध सदाशिव गोवंदे ने किया। कुछ ही समय बाद, 15 मई 1848 को दलित बस्ती में दलित बालक-बालिकाओं के लिए एक अन्य स्कूल खोला। एक वर्ष के अंदर 5 विद्यालय स्थापित किये। वह केवल महिलाओं एवं दलित जनों की शिक्षा-दीक्षा और आर्थिक विकास तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय की निम्न शैक्षिक स्थिति को लेकर भी चिंतित थीं। तो उन्हें भी शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अपनी स्कूल की छात्रा फातिमा शेख को अपने एक स्कूल में शिक्षिका बनाकर प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्रदान किया जो बाद में देश की प्रमुख सामाजिक कार्यकत्री बनीं। इस प्रकार सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के साथ मिलकर 1 जनवरी 1848 से 15 मार्च 1852 की अवधि में पुणे और उसके आसपास 18 विद्यालय बिना किसी बाहरी आर्थिक मदद के निजी सामर्थ्य से स्थापित किएर्थ्य, जहाँ सैकड़ों की संख्या में बच्चों ने शिक्षा प्राप्त कर अपने जीवन को संवारा। उनके कोई संतान न थी, स्कूल के बच्चे ही उनका सर्वस्व थे। जब सावित्रीबाई अपने विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने जातीं तो विरोधी उनके ऊपर कूड़ा-कचरा, गंदगी, विष्ठा फेंक देते थे। लेकिन ध्येयनिष्ठ सावित्री अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं हुईं बल्कि कहीं अधिक आत्मविश्वास और साहस से अपने कर्तव्यपथ पर सतत् बढ़ती रहीं। वह अपने साथ एक झोलें में एक अतिरिक्त साड़ी रखतीं और विद्यालय पहुँचने पर विरोधियों द्वारा फेंकी गई गंदगी को साफ कर दूसरी साड़ी पहन लेतीं। सावित्री ने जो रास्ता चुना था उसमें फूल नहीं बल्कि पग-पग पर काँटे बिखरे हुए थे। लेकिन उन काँटों की चुभन में भी उन्हें खुशी होती कि वह स्त्री शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए कुछ कर पा रही हैं।
उस समय समाज में बाल विवाह की कुप्रथा के कारण बड़ी संख्या में महिलाएँ छोटी अवस्था में ही विधवा हो जाती थीं। समाज में विधवा विवाह वर्जित था। इस कारण विधवा महिलाएँ दीन-हीन जीवन तो जीती ही थीं साथ ही हिंसा और बलात्कार का शिकार भी हो जाती थी। बलात्कार के कारण गर्भ स्थापन हो जाने से लोक-लाज और सामाजिक भय के चलते वे महिलाएँ आत्महत्या करने को विवश थीं। सावित्रीबाई से महिलाओं पर यह अन्याय देखा न गया और 28 जनवरी 1853 को गर्भवती महिलाओं को आश्रय देने एवं सुरक्षा के लिए ज्योतिबा के मित्र उस्मान शेख के घर पर ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ की स्थापना की और पालनाघर भी बनाया। सावित्रीबाई ने बाल काटने वाले नाईयों से बातचीत की और उनको साथ लेकर विधवा महिलाओं के सिर मूंड़ने के खिलाफ आंदोलन चलाया। पितृसत्ता और स्त्रीविरोधी मान्यताओं के खिलाफ आवाज बुलंद की और महिलाओं को मानवीय गरिमा के साथ जीवन यापन करने के मौके उपलब्ध कराये। 1892 में महिलाओं को आर्थिक स्वावलंबन देने के लिए ‘महिला सेवा मंडल’ बनाया जिसमें महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने हेतु उनके कौशल विकास के प्रशिक्षण प्रारम्भ हुए जिससे महिलाएँ आत्मनिर्भर बन सकीं।
वह भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवयित्री थीं। विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाकर सामाजिक समरसता का प्रसार करना, महिलाओं को शोषण से मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाने जैसे महत्वपूर्ण काम किए। जातिभेद, लिंगभेद और रंगभेद के विरुद्ध अलख जगाई और महिलाओं कें लिए समाज में एक सम्मानजनक जगह बनाते हुए एक सकारात्मक वातावरण तैयार किया। उन्हें मराठी की आदि कवयित्री के रूप में भी जाता है। सावित्रीबाई के जीवन का प्रत्येक पल महिलाओं एवं पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए समर्पित था। 1897 में पुणे में भयंकर रोग प्लेग फैला जिसने महामारी का रूप ले लिया। लोग पुणे छोड़कर जाने लगे। लोगों ने सावित्रीबाई को भी पुणे छोड़कर साथ चलने का अनुरोध किया पर वह तैयार न हुईं और एक दिन एक प्लेग पीड़ित बच्चे को आश्रम लाने के लिए कोई व्यवस्था न हो सकी तो उसे स्वयं कंधे पर उठाकर लाना पड़ा जिससे वह स्वयं प्लेग से ग्रस्त हो गईं और प्लेग के कारण 10 मार्च 1897 को पुणे में निधन हो गया। सावित्रीबाई आज हमारे बीच नहीं पर उनके किए गये कार्य हमें रास्ता दिखाते रहेंगे। भारत सरकार ने 10 मार्च 1998 को सावित्रीबाई पर 2 रुपये का डाकटिकट जारी कर उनके शैक्षिक एवं सामाजिक अवदान के महत्व को रेखांकित करते हुए सार्थक श्रद्धांजलि प्रदान की। ‘गूगल’ ने 2017 में उनकी 186वीं जयंती पर ‘डूडल’ के जरिए उन्हें स्मरण किया जिसमें सावित्रीबाई को महिलाओं को अपने आंचल में समेटते दिखाया गया है। महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय कर उनकी स्मृति को चिर स्थायी कर दिया।
वर्तमान समय में शहर, कस्बों एवं गाँवों में ही नहीं बल्कि वनवासी समाज में भी वहाँ निवास करने वाले आमजन को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए सरकारी एवं गैर सरकारी प्रयासों से विभिन्न स्तर के विद्यालय स्थापित हुए हैं जहाँ सभी के लिए शिक्षा प्राप्त करने के रास्ते खुले हैं। शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 ने भी देश के सभी बच्चों को बिना बाधा, रुकावट एवं भेदभाव के शिक्षा प्राप्त कर सकने का विस्तृत फलक तैयार किया है। यही कारण है कि विभिन्न वर्गों एवं जाति समूहों की बालक-बालिकाएँ आज बड़ी संख्या में शिक्षा प्राप्त कर समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पहुँचकर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। लेकिन आज से डेढ़-दो सौ वर्ष पहले का शैक्षिक दृश्य ऐसा नहीं था। तब शिक्षा समाज के कुछ उच्च वर्गों लोगों की परिधि तक ही सीमित थी। तो महिलाओं और दलित-पिछड़े वर्ग के पुरुषों के लिए शिक्षा संस्थानों के बंद दरवाजे खोलने का साहस, सतत् प्रयास और संघर्ष जिस महनीय व्यक्तित्व ने किया वह थी सावित्री बाई।
हाँ, वहीं सावित्रीबाई फुले जिसे विश्व आधुनिक भारत की प्रथम शिक्षिका के रूप में जानता है।
3 जनवरी 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले की खंडाला तहसील के नायगांव में एक पिछड़े वर्ग के परिवार में सावित्रीबाई का जन्म हुआ था। सावित्री को किसी स्कूल भेजने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि उस काल में तो वंचित एव पिछड़े वर्ग के बालकों को भी सामान्यतया स्कूल भेजने की कोई परम्परा नहीं थी। पिता खंदोजी नावसे पाटिल और माता लक्ष्मीबाई ने तत्कालीन परिस्थितियों एवं सामाजिक रीति-रिवाज के कारण 9 वर्ष की छोटी अवस्था में ही सावित्री का विवाह पुणे के 12 वर्षीय ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के साथ 1840 में कर दिया। ज्योतिराव भी पाँचवीं तक ही शिक्षा प्राप्त कर सके थे क्योंकि परिवार के पुश्तैनी फूलों के व्यवसाय एवं खेती के काम में सहयोग देने के लिए उन्हें स्कूल से निकाल लिया गया था। तो विवाह के बाद ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को पढ़ाना आरम्भ किया। उस दौर में किसी महिला का शिक्षा प्राप्त करना एक प्रकार से पापकर्म समझा जाता था। फलतः ज्योतिबा का विरोध शुरु हो गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और चोरी छिपे पढ़ाना-लिखाना जारी रखा। सावित्रीबाई और ज्योतिबा की एक रिश्तेदार सगुणाबाई खेत पर ज्योतिबा को दोपहर में खाना देने जाती थीं। ज्योतिबा ने वहीं खेत की मेंड़ पर आम के पेड़ के नीचे आम की पतली टहनी की कलम बनाकर दोनों को अक्षर ज्ञान कराया। किसे मालूम था कि उस खेत की जमीन में धूल पर उकेरे गये पहले अक्षर एक तेजस्विनी अग्नि को जन्म देने वाले थे जिसे समाज में व्याप्त भेदभाव, बंदिशें और गैरबराबरी की कलुष बेड़ियों को जलाकर महिलाओं एवं वंचित समाज के लिए विकास का एक राजपथ तैयार करना था जिस पर चलते हुए वे सिर उठाकर आत्मविश्वास और आत्मगौरव के साथ जी सकें। इस तरह खेत और घर पर सावित्री बहुत संघर्ष के साथ अक्षर ज्ञान कर सकीं। फिर बाद में एक ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी मिसेज मिशेल ने बालिकाओं के लिए 1840 में पुणे में छबीलदास की हवेली में एक नॉर्मल स्कूल प्रारम्भ किया तो सावित्री वहीं पढ़ने लगीं। वहीं पढ़ते समय सावित्री ने गुलामी प्रथा के विरुद्ध काम करने वाले थामस क्लार्कसन की जीवनी पढ़ी जिसमें अमेरिका के अफ्रीकी गुलामों के जीवन और संघर्ष की दर्दनाक दास्तान छपी थी। सावित्री समझ गयीं कि शिक्षा ही बदलाव का मजबूत औजार है क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति न तो अपने अधिकार जान सकता और न ही उनकी प्राप्ति के लिए लड़ाई लड़ सकता। इस किताब ने उनके अन्दर स्वयं पढ़ने की ललक तो जगायी ही बल्कि समाज की बालिकाओं को शिक्षित करने का एक स्वप्न भी दिया।
बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ने के लिए 1 जनवरी 1848 में ज्योतिबा के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की 9 बालिकाओं को लेकर भिड़ेवाड़ी, पुणे में कन्या विद्यालय स्थापित किया, जहाँ सगुणबाई ने भी शिक्षिका के रूप में काम किया। इस विद्यालय में बालिकाओं ने गणित, व्याकरण, भूगोल, भारत सहित यूरोप एवं एशिया के नक्शों की जानकारी, मराठों का इतिहास तथा नीति एवं बाल बोध विषयों को पढ़कर देश के शैक्षिक फलक में अपनी जीवन्त उपस्थिति दर्ज करायी। विद्यालय के लिए पुस्तकों का प्रबन्ध सदाशिव गोवंदे ने किया। कुछ ही समय बाद, 15 मई 1848 को दलित बस्ती में दलित बालक-बालिकाओं के लिए एक अन्य स्कूल खोला। एक वर्ष के अंदर 5 विद्यालय स्थापित किये। वह केवल महिलाओं एवं दलित जनों की शिक्षा-दीक्षा और आर्थिक विकास तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय की निम्न शैक्षिक स्थिति को लेकर भी चिंतित थीं। तो उन्हें भी शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अपनी स्कूल की छात्रा फातिमा शेख को अपने एक स्कूल में शिक्षिका बनाकर प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्रदान किया जो बाद में देश की प्रमुख सामाजिक कार्यकत्री बनीं। इस प्रकार सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के साथ मिलकर 1 जनवरी 1848 से 15 मार्च 1852 की अवधि में पुणे और उसके आसपास 18 विद्यालय बिना किसी बाहरी आर्थिक मदद के निजी सामर्थ्य से स्थापित किएर्थ्य, जहाँ सैकड़ों की संख्या में बच्चों ने शिक्षा प्राप्त कर अपने जीवन को संवारा। उनके कोई संतान न थी, स्कूल के बच्चे ही उनका सर्वस्व थे। जब सावित्रीबाई अपने विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने जातीं तो विरोधी उनके ऊपर कूड़ा-कचरा, गंदगी, विष्ठा फेंक देते थे। लेकिन ध्येयनिष्ठ सावित्री अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं हुईं बल्कि कहीं अधिक आत्मविश्वास और साहस से अपने कर्तव्यपथ पर सतत् बढ़ती रहीं। वह अपने साथ एक झोलें में एक अतिरिक्त साड़ी रखतीं और विद्यालय पहुँचने पर विरोधियों द्वारा फेंकी गई गंदगी को साफ कर दूसरी साड़ी पहन लेतीं। सावित्री ने जो रास्ता चुना था उसमें फूल नहीं बल्कि पग-पग पर काँटे बिखरे हुए थे। लेकिन उन काँटों की चुभन में भी उन्हें खुशी होती कि वह स्त्री शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए कुछ कर पा रही हैं।
उस समय समाज में बाल विवाह की कुप्रथा के कारण बड़ी संख्या में महिलाएँ छोटी अवस्था में ही विधवा हो जाती थीं। समाज में विधवा विवाह वर्जित था। इस कारण विधवा महिलाएँ दीन-हीन जीवन तो जीती ही थीं साथ ही हिंसा और बलात्कार का शिकार भी हो जाती थी। बलात्कार के कारण गर्भ स्थापन हो जाने से लोक-लाज और सामाजिक भय के चलते वे महिलाएँ आत्महत्या करने को विवश थीं। सावित्रीबाई से महिलाओं पर यह अन्याय देखा न गया और 28 जनवरी 1853 को गर्भवती महिलाओं को आश्रय देने एवं सुरक्षा के लिए ज्योतिबा के मित्र उस्मान शेख के घर पर ‘बाल हत्या प्रतिबंधक गृह’ की स्थापना की और पालनाघर भी बनाया। सावित्रीबाई ने बाल काटने वाले नाईयों से बातचीत की और उनको साथ लेकर विधवा महिलाओं के सिर मूंड़ने के खिलाफ आंदोलन चलाया। पितृसत्ता और स्त्रीविरोधी मान्यताओं के खिलाफ आवाज बुलंद की और महिलाओं को मानवीय गरिमा के साथ जीवन यापन करने के मौके उपलब्ध कराये। 1892 में महिलाओं को आर्थिक स्वावलंबन देने के लिए ‘महिला सेवा मंडल’ बनाया जिसमें महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने हेतु उनके कौशल विकास के प्रशिक्षण प्रारम्भ हुए जिससे महिलाएँ आत्मनिर्भर बन सकीं।
वह भारत की प्रथम महिला शिक्षिका, समाज सुधारिका एवं मराठी कवयित्री थीं। विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाकर सामाजिक समरसता का प्रसार करना, महिलाओं को शोषण से मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित बनाने जैसे महत्वपूर्ण काम किए। जातिभेद, लिंगभेद और रंगभेद के विरुद्ध अलख जगाई और महिलाओं कें लिए समाज में एक सम्मानजनक जगह बनाते हुए एक सकारात्मक वातावरण तैयार किया। उन्हें मराठी की आदि कवयित्री के रूप में भी जाता है। सावित्रीबाई के जीवन का प्रत्येक पल महिलाओं एवं पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए समर्पित था। 1897 में पुणे में भयंकर रोग प्लेग फैला जिसने महामारी का रूप ले लिया। लोग पुणे छोड़कर जाने लगे। लोगों ने सावित्रीबाई को भी पुणे छोड़कर साथ चलने का अनुरोध किया पर वह तैयार न हुईं और एक दिन एक प्लेग पीड़ित बच्चे को आश्रम लाने के लिए कोई व्यवस्था न हो सकी तो उसे स्वयं कंधे पर उठाकर लाना पड़ा जिससे वह स्वयं प्लेग से ग्रस्त हो गईं और प्लेग के कारण 10 मार्च 1897 को पुणे में निधन हो गया। सावित्रीबाई आज हमारे बीच नहीं पर उनके किए गये कार्य हमें रास्ता दिखाते रहेंगे। भारत सरकार ने 10 मार्च 1998 को सावित्रीबाई पर 2 रुपये का डाकटिकट जारी कर उनके शैक्षिक एवं सामाजिक अवदान के महत्व को रेखांकित करते हुए सार्थक श्रद्धांजलि प्रदान की। ‘गूगल’ ने 2017 में उनकी 186वीं जयंती पर ‘डूडल’ के जरिए उन्हें स्मरण किया जिसमें सावित्रीबाई को महिलाओं को अपने आंचल में समेटते दिखाया गया है। महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय कर उनकी स्मृति को चिर स्थायी कर दिया।
सम्प्रति:-
ब्लाॅक संसाधन केन्द्र नरैनी, बांदा में सह-समन्वयक (हिन्दी) पद पर
कार्यरत। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक बदलावों, आनन्ददायी
षिक्षण एवं नवाचारी मुद्दों पर सतत् लेखन एवं प्रयोग ।
सम्पर्क:- 79/18, शास्त्री नगर, अतर्रा - 210201, जिला - बाँदा, उ. प्र.। मोबा. - 9452085234,
लेखक
प्रमोद दीक्षित ʺमलयʺ
सह-समन्वयक - हिन्दी,
बीआरसी नरैनी , जिला - बांदा
79 ⁄ 18‚ शास्त्री नगर‚
अतर्रा – 210201‚ जिला– बाँदा‚ उत्तर प्रदेश
Mob. 09452085234
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आभार
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