कुम्भ पर्व..... विश्व कल्याण का शंखनाद
भारतीय संस्कृति की यह विशेषता है कि वह व्यक्तियों और स्थानों के नाम किसी विशेष गुणों के आधार पर ही निरूपित करती रही है। भारतवर्ष के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित 'प्रयाग' शब्द हमारी इसी अवधारणा की पुष्टि करता है।
कहा जाता है कि यहाँ सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने अखण्ड तपस्या और अनेक यज्ञों का सम्पादन किया था। ब्रह्मा के द्वारा प्रकृष्ट रूप से यज्ञ किए जाने के कारण इस भूमि का नाम 'प्रयाग' पड़ा। यहाँ पर श्वेत सलिला गंगा, श्याम नीरा यमुना एवं अदृश्य विमला माँ सरस्वती का संगम सृष्टि की 'नारी-शक्ति' का प्रतिबिम्बन है।
इसी 'प्रयागराज' को मुगल बादशाह अकबर के द्वारा अपने 'दीन-इलाही' मत को संस्थापित करने के पश्चात..'इलाहाबाद के रूप में नामान्तरित कर दिया गया था किंतु वर्तमान सरकार ने पुनः 'प्रयागराज' के रूप में इसे मान्यता प्रदान कर दी है।
कहा जाता है कि यहाँ सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा ने अखण्ड तपस्या और अनेक यज्ञों का सम्पादन किया था। ब्रह्मा के द्वारा प्रकृष्ट रूप से यज्ञ किए जाने के कारण इस भूमि का नाम 'प्रयाग' पड़ा। यहाँ पर श्वेत सलिला गंगा, श्याम नीरा यमुना एवं अदृश्य विमला माँ सरस्वती का संगम सृष्टि की 'नारी-शक्ति' का प्रतिबिम्बन है।
इसी 'प्रयागराज' को मुगल बादशाह अकबर के द्वारा अपने 'दीन-इलाही' मत को संस्थापित करने के पश्चात..'इलाहाबाद के रूप में नामान्तरित कर दिया गया था किंतु वर्तमान सरकार ने पुनः 'प्रयागराज' के रूप में इसे मान्यता प्रदान कर दी है।
'कुम्भ पर्व' पूर्णता का प्रतीक है। 'प्रयागराज' के 'कुम्भ' का तो फिर अपना ही महत्व है..शायद इसलिए इसे 'महाकुंभ' की संज्ञा दी जाती है। निर्माण, पालन-संहार ये तीन विशेषताओं का संम्बंध हमारे जीवन से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। सृष्टि का निर्माण करने वाले ब्रह्मा, पालन करने वाले श्री विष्णु और संहार करने वाले भगवान शिव तीनों का ही स्वरूप इस 'प्रयागराज' में ही स्थित माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस प्रजापति क्षेत्र में सृष्टि कर्ता ब्रह्मा अपने गोपन स्वरूप में सदैव विद्ममान रहते हैं। उन्ही के द्वारा अश्वमेध यज्ञ यहीं सम्पन्न किया गया था। द्वादश माधव के रूप में भगवान विष्णु का ये निवास क्षेत्र है तथा 'अक्षय वट' के रूप में भगवान शंकर को यहाँ उपस्थित माना गया है।
इस प्रकार ये सुंदर प्रयाग भूमि 'त्रिदेवियों' के साथ-साथ 'त्रिदेवों' का साक्षात् निवास स्थल है।
चतुर्दश रत्नों में से एक अमृत कलश को सुरक्षित रखने के लिए भगवान विष्णु ने स्वयं अपने प्रयास से विश्वकर्मा का रूप धारण कर अनेक कलाओं के मिश्रण से एक कुम्भ का निर्माण किया था। यह अमृत कलश लेकर भगवान धन्वंतरि जो कि अपने आप में एक रत्न थे अवतरित हुए।
कुम्भ में अमृत की जो स्थिति स्वीकारी गई है वह अमृत किसी और का नहीं वरन् आत्मा और परमात्मा का प्रतीक है क्योंकि अमृत की शर्त है....'अ'--'मृत'------जो न मरे...कभी भी नष्ट न हो।
ये दोनों ही गुण आत्मा-परमात्मा में विद्ममान हैं। आत्मा-परमात्मा---अजर है....अमर है... मन व इन्द्रियों से 'परात्पर'(परात्परं इति परात्परः) अर्थात् जो दूर से भी दूर हो।
प्रत्येक संवत्सर में अनंत पर्व होते हैं और यह 'कुम्भ पर्व' निश्चय ही हमें अमृत तत्व का स्मरण कराने वाला पर्व है।
स्वामी विवेकानंद जी ने सत्य ही कहा था--'जिस प्रकार विभिन्न मार्गों से होती हुईं नदियाँ एक ही समुद्र में जा मिलती हैं' ठीक उसी प्रकार विभिन्न मत-मतान्तर हमें एक ही परमात्मा की ओर ले जाते हैं। हमारे 'कुम्भ पर्व' में एक तत्व की शक्ति निहित है। यह पर्व धार्मिक महत्व के साथ-साथ सांस्कृतिक और सामाजिक महत्व भी रखता है।
"एक गीत मैं लिखूँ,एक गीत तुम लिखो।
शब्द हों अलग-अलग, किंतु भाव एक हो।।"
इसी भावना का परिपोषण यह पर्व करता है।
सम्पूर्ण सृष्टि का कल्याण सोचना......सम्पूर्ण संसार का शुभ सोचना..... यही हमारी भारतीय संस्कृति का मूल मंत्र है।
इस 'कुम्भ पर्व' पर हमारी यही प्रार्थना है कि राम-राज्य की परिकल्पना को साकार करते हुए भारतीय संस्कृति का शुभत्व चिर स्थायी रहे।
सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कशि्चददुःखभाग्भवेत।
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