संस्कृति पर दुःश्चिता

चली है ब्यार तो मल्हार सब गाने लगे
क्या कहूँ कैसे कहूँ बिन कहे रहा नहीं जाता। भारत की संस्कृति की विशेषता है एकता में अनेकता। हम भले ही पश्चिम को कुछ भी समझें, पर ये हमारी संस्कृति को अनोखा समझते हैं। हम एक पुष्पक विमान की कल्पना गढ़ते हैं, वे हजारों विमान बनाकर दिखा देते हैं। हम एक ब्रम्हास्त्र की कल्पना लिखते हैं, वे हजारों परमाणु बम बनाकर दिखा देते हैं। हम संजयदृष्टि का बखान गाते हैं, वे विडिओ कांफ्रेंसिंग करके दिखा देते हैं। हम गाय, गंदगी और गरीब में फँसे रहते हैं वे जीवन को नित-नित सरल करने के बारे में सोचते हैं। विडम्बना उस पर ये कि हमें ही विश्वगुरु मानते हैं और शान्ति के अग्रदूत के रूप में देख रहे हैं।

हम कब तक मिथ्याचरण में डूबे रहेंगे। हम किसी भावना के वशीभूत होकर दुराग्रह क्यों पालते हैं? किसी धर्म का कोई त्यौहार व्यक्तिगत नहीं होता और न ही कोई महामानव। उसे व्यक्तिगत रूचि के आधार पर सब मना सकते। न तो हमें कुण्ठित होने की आवश्यकता है और न तो असुरक्षित होने की।हमारी संस्कृति की पहचान सर्वधर्म समभाव पर आधारित है और विदेशी इसी आकर्षण में बँधकर खिंचे चले आते हैं।

लेखक
विद्या सागर,
प्रधानाध्यापक,
प्रा०वि०-गुगौली,
विकास खण्ड-मलवां
जनपद-फतेहपुर।


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