नजरियों का गुनाह

अक्सर लोगों को कहते सुना मैंने,
लोगों की नजरों को बुना मैंने।।
सब चीज में ही कमी नजर आई, देखा मैंने,
अपने ही मन को इतना बड़ा कर लिया,
कि हर जगह कमी ही, देखा मैंने।।

फिर थोड़ा गुफ्तगू किया मैंने,
तब एहसास हुआ नजरों को,
शून्य की तरफ किया, मैंने,
आँखों से फलसफा सुना, कमी कहीं ना थी,
बस नजरिए का गुनाह किया मैंने।।

मैंने सब को पढ़ा, कभी खुद को न पढ़ा,
भूल हुई जिसे सुधारा मैंने,
ज्यादा कुछ नहीं किया,
बस नजरिए के गुनाह को कुबूल किया, मैंने।।

हर इंसान, नीति, नियम, सोच, शब्द सही पाया मैंने,
क्योंकि हर जगह अच्छाइयां खोजी मैंने।।
गलत कुछ भी नहीं ..........
          कुछ भी नहीं।।

रचयिता
शालिनी सिंह,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय जानकीपुर,
विकास खण्ड-सिराथू,
जनपद-कौशाम्बी।

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