बेटी
बेटी के रूप में जन्म लिया तो
पर जमाना खुश नहीं हुआ।
प्रकृति की इस अनमोल भेंट को,
अभी अपनाना बाकी है।
खुद से चलना, फिर दौड़ना सीख रही,
खुशियाँ हक है मेरा, कोई भीख नहीं।
मेरे सपनों की उड़ान को भी अभी,
हकीकत में आना बाकी है।
जन्म लेने से पहले ही जीवन पाने के लिये
ली गई परीक्षा, कोख में आने के लिए
जीवन पाकर, इस दुनिया में,
खुद को साबित करना अभी बाकी है।
केवल दो ही रूपों में
प्रकृति ने बनाया प्राणी को,
पर लाचार होते हुए भी, श्रेष्ठ है,
‛पशु' अभी ये समझाना बाकी है।
जिसने, जीवन भर सिर्फ दी हैं खुशियाँ,
बेटी, बहन, पत्नी या माँ के रूप में,
संवारती व सजाती है दुनिया।
जाने अब और क्या रह गया बाकी है।
उसने मन से हर रिश्ता निभाया,
शिक्षा लेकर हर स्थान भी पाया,
पर अभी भी सबके दिलों में,
'बेटे' जैसा सम्मान पाना बाकी है।
विज्ञान के इस नए दौर में,
चाँद व नई दुनिया की चाह है,
पर बेटा, बेटी एक समान,
परिवर्तन ये आना बाकी है।
रचयिता
दीपा आर्य,
प्रधानाध्यापक,
रा0 प्रा0 वि0 लमगड़ा,
जनपद-अल्मोड़ा,
उत्तराखंड।
पर जमाना खुश नहीं हुआ।
प्रकृति की इस अनमोल भेंट को,
अभी अपनाना बाकी है।
खुद से चलना, फिर दौड़ना सीख रही,
खुशियाँ हक है मेरा, कोई भीख नहीं।
मेरे सपनों की उड़ान को भी अभी,
हकीकत में आना बाकी है।
जन्म लेने से पहले ही जीवन पाने के लिये
ली गई परीक्षा, कोख में आने के लिए
जीवन पाकर, इस दुनिया में,
खुद को साबित करना अभी बाकी है।
केवल दो ही रूपों में
प्रकृति ने बनाया प्राणी को,
पर लाचार होते हुए भी, श्रेष्ठ है,
‛पशु' अभी ये समझाना बाकी है।
जिसने, जीवन भर सिर्फ दी हैं खुशियाँ,
बेटी, बहन, पत्नी या माँ के रूप में,
संवारती व सजाती है दुनिया।
जाने अब और क्या रह गया बाकी है।
उसने मन से हर रिश्ता निभाया,
शिक्षा लेकर हर स्थान भी पाया,
पर अभी भी सबके दिलों में,
'बेटे' जैसा सम्मान पाना बाकी है।
विज्ञान के इस नए दौर में,
चाँद व नई दुनिया की चाह है,
पर बेटा, बेटी एक समान,
परिवर्तन ये आना बाकी है।
रचयिता
दीपा आर्य,
प्रधानाध्यापक,
रा0 प्रा0 वि0 लमगड़ा,
जनपद-अल्मोड़ा,
उत्तराखंड।
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