प्रकृति और मानव

चिड़ियाँ चहक-चहक कर बोलीं,
कलियों ने थीं आँखें खोलीं।
फूलों ने उपवन महकाकर,
भँवरे से कर ली हमजोली।।

ओस की बूँदें पत्तों पर थीं,
रवि की किरणों से डर बैठीं।
गुम हो गईं वो ऐसे अचानक,
जैसे कभी जन्मी ही न थीं।।

कितनी शीतल हवा बह रही,
फसलें लहर-लहर लहराएँ।
अन्न के दाता अन्न उगाकर,
सबका जीवन सुखी बनाएँ।।

नदिया कल-कल बहती जाएँ,
राहगीर की प्यास बुझाये।
पर्वत अपना शीश उठाकर,
ऊँचे कर्मों को सिखलाये।।

वृक्षों की ठंडी छाया में,
मानव अपनी थकान मिटाये।
मीठे-मीठे फलों को खाकर,
राही अपनी क्षुधा मिटाए।।

प्रकृति का उपकार है इतना,
कुछ तो आओ कर्ज़ चुकाएँ।
पानी निर्मल अमृत धारा,
उसको यूँ न व्यर्थ बहाएँ।।

आओ अपने हाथ जोड़कर,
ईश के आगे शीश झुकाएँ।
अच्छाई का दामन थामें,
सच्चाई को गले लगाएँ।।

रचयिता
पूजा सचान,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय मसेनी(बालक) अंग्रेजी माध्यम,
विकास खण्ड-बढ़पुर,
जनपद-फर्रुखाबाद।

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