एक नजरिया यह भी
मुझे अनुशासन पसंद है
पर मैं आनंद लेता हूँ बच्चों की मासूम शरारतों का
मुझे शान्त व्यवहार वाले बच्चे अच्छे लगते हैं
लेकिन विद्यालय की रौनक हैं कुछ की अठखेलियाँ
मेरी व्याकरण-सम्मत भाषा मेरी निधि है
लेकिन लोक भाषा और बोली में अजीब सी कशिश है, अपनत्व है
पढ़ने वाले बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं
लेकिन भोले और सीधे बच्चे दिल में उतरते हैं
दूसरों पर स्वामित्व मुझे भी गर्वित करता है
लेकिन बच्चे मुझ पर अधिकार जतायें, हृदय पिघलता है
मैं चाहता हूँ बच्चों के अन्तस्तल को सदैव शुद्ध बनाये रखना
लेकिन उन्हें 'कामयाब' बनाने की 'दौड़' में न जाने क्या-क्या 'चुक' सा रहा है
मैं चाहता हूँ कि मेरे विद्यार्थी कामयाब हों
लेकिन कामयाबी की परिभाषा अभी विचाराधीन है
मेरे विद्यालय में भविष्य के डॉक्टरों और इंजीनियरों की फ़ौजें नहीं पढ़तीं
उन्हें 'कामयाबी' की कहानियां सुनाकर कहीं भावी कुंठाओं के बीज तो नहीं बो रहा मैं
क्यों न भविष्य के उन अधिसंख्य किसानों और मजदूरों को
जीने की कला सिखाऊँ मैं ताकि दुःख के अंधेरों में शमां बनकर रोशन हों वो
और भी एक प्रश्न, कहीं ऐसा तो नहीं कि
बच्चों को सिखाने से ज़्यादा ज़रूरत है उनसे सीखने की
मैं चाहता हूँ उन्हें और खुद को उन्मुक्त आसमान में उड़ाना
पर पूर्व-निर्धारित नियमों और अपेक्षाओं के बोझ से बंधा हूँ
और हाँ, सिस्टम के साथ-साथ मुझमें भी तो ढेरों कमियाँ हैं,
उनसे भी लड़ना पड़ता है रोज़, ताकि अपनी सोच भी कहीं साथ न छोड़ दे
रचनाकार
प्रशान्त अग्रवाल
सहायक अध्यापक
प्राथमिक विद्यालय डहिया
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी
ज़िला बरेली (उ.प्र.)
पर मैं आनंद लेता हूँ बच्चों की मासूम शरारतों का
मुझे शान्त व्यवहार वाले बच्चे अच्छे लगते हैं
लेकिन विद्यालय की रौनक हैं कुछ की अठखेलियाँ
मेरी व्याकरण-सम्मत भाषा मेरी निधि है
लेकिन लोक भाषा और बोली में अजीब सी कशिश है, अपनत्व है
पढ़ने वाले बच्चे मुझे अच्छे लगते हैं
लेकिन भोले और सीधे बच्चे दिल में उतरते हैं
दूसरों पर स्वामित्व मुझे भी गर्वित करता है
लेकिन बच्चे मुझ पर अधिकार जतायें, हृदय पिघलता है
मैं चाहता हूँ बच्चों के अन्तस्तल को सदैव शुद्ध बनाये रखना
लेकिन उन्हें 'कामयाब' बनाने की 'दौड़' में न जाने क्या-क्या 'चुक' सा रहा है
मैं चाहता हूँ कि मेरे विद्यार्थी कामयाब हों
लेकिन कामयाबी की परिभाषा अभी विचाराधीन है
मेरे विद्यालय में भविष्य के डॉक्टरों और इंजीनियरों की फ़ौजें नहीं पढ़तीं
उन्हें 'कामयाबी' की कहानियां सुनाकर कहीं भावी कुंठाओं के बीज तो नहीं बो रहा मैं
क्यों न भविष्य के उन अधिसंख्य किसानों और मजदूरों को
जीने की कला सिखाऊँ मैं ताकि दुःख के अंधेरों में शमां बनकर रोशन हों वो
और भी एक प्रश्न, कहीं ऐसा तो नहीं कि
बच्चों को सिखाने से ज़्यादा ज़रूरत है उनसे सीखने की
मैं चाहता हूँ उन्हें और खुद को उन्मुक्त आसमान में उड़ाना
पर पूर्व-निर्धारित नियमों और अपेक्षाओं के बोझ से बंधा हूँ
और हाँ, सिस्टम के साथ-साथ मुझमें भी तो ढेरों कमियाँ हैं,
उनसे भी लड़ना पड़ता है रोज़, ताकि अपनी सोच भी कहीं साथ न छोड़ दे
रचनाकार
प्रशान्त अग्रवाल
सहायक अध्यापक
प्राथमिक विद्यालय डहिया
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी
ज़िला बरेली (उ.प्र.)
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