विजयादशमी
मन भीतर बैठा रावण,
कैसे तुम दूर भगाओगे।
हर ले तम जो उर का तेरे,
वो ज्योत कहाँ से लाओगे।
गली - गली में पाप है बसता,
धन, पद, मद, लोभ के व्यापार का।
सत्य वचन पर मिटने वालों की,
वह नगरी कहाँ बसाओगे।
भाई - भाई बने खून के प्यासे,
घर बाँट खुद देख रहे तमाशे।
अपना सर्वस्व छोड़ दे जो,
ऐसा भरत कहाँ से लाओगे।
सीता को हरने वाले,
रावण में भी मर्यादा थी।
तन उसने कभी छुआ नहीं,
स्त्री सम्मान की रक्षा की थी।
आज स्व सम्बन्धों से ही हार गई,
सुता का यौवन कैसे बचाओगे।
अश्लील कृत्यों में लिप्त मनुज,
भूल गया अमूल्य संस्कारों को।
विजय मिले बस विजय मिले,
निधड़क रौंद रहा लाचारों को।
मर्यादा ले उड़ा जा रहा रावण,
जटायु को कहाँ से बुलाओगे।
कहाँ है उसका ठौर धाम,
थाह कहाँ से पाओगे।
सत्य अहिंसा प्रेम धर्म का प्रण ले,
मन के अहम को जला पाओगे।
गर्व करे दुनिया जिस पर क्या,
खुद को ऐसा राम बनाओगे।
रचयिता
वन्दना यादव " गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक ,
डोभी , जौनपुर।
कैसे तुम दूर भगाओगे।
हर ले तम जो उर का तेरे,
वो ज्योत कहाँ से लाओगे।
गली - गली में पाप है बसता,
धन, पद, मद, लोभ के व्यापार का।
सत्य वचन पर मिटने वालों की,
वह नगरी कहाँ बसाओगे।
भाई - भाई बने खून के प्यासे,
घर बाँट खुद देख रहे तमाशे।
अपना सर्वस्व छोड़ दे जो,
ऐसा भरत कहाँ से लाओगे।
सीता को हरने वाले,
रावण में भी मर्यादा थी।
तन उसने कभी छुआ नहीं,
स्त्री सम्मान की रक्षा की थी।
आज स्व सम्बन्धों से ही हार गई,
सुता का यौवन कैसे बचाओगे।
अश्लील कृत्यों में लिप्त मनुज,
भूल गया अमूल्य संस्कारों को।
विजय मिले बस विजय मिले,
निधड़क रौंद रहा लाचारों को।
मर्यादा ले उड़ा जा रहा रावण,
जटायु को कहाँ से बुलाओगे।
कहाँ है उसका ठौर धाम,
थाह कहाँ से पाओगे।
सत्य अहिंसा प्रेम धर्म का प्रण ले,
मन के अहम को जला पाओगे।
गर्व करे दुनिया जिस पर क्या,
खुद को ऐसा राम बनाओगे।
रचयिता
वन्दना यादव " गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक ,
डोभी , जौनपुर।
Comments
Post a Comment