बच्चे अभिभावक और महत्वकांक्षा

वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए यह कहना मिथ्या  नहीं होगा कि हम अपनी महत्वाकांक्षा बच्चों पर थोप रहे हैं। हम अभिभावक बच्चों के लिए ऐसे लक्ष्य का निर्धारण कर रहे हैं जो हमारे और समाज के दृष्टिकोण से सही है। हम उन्हें वह बनाना चाहते हैं जो समाज मे चलन में है और कहीं न कहीं इसे अपने सम्मान से भी जोड़ लेते हैं। हम बच्चों की भावनाओं उनकी रुचियों को सुनना ही नहीं चाहते और यदि सुनते भी हैं तो यदि उनकी आकांक्षाएँ, इच्छाएँ समाजिक चलन के प्रतिकूल हुईं तो उसे नकारात्मकता के साथ नकार देते हैं। हम अभिभावक बच्चों को आल राउंडर्स बनने के लिए प्रेरित करते हैं, इसमें बच्चों की कहानी अक्सर सफल कहानी बनने की बजाय एक कष्टदायक कहानी के रूप में खत्म होती है।

बच्चों की रचनात्मकता निखारने, उसे बाहर लाने में कला, संगीत, नृत्य, एवं खेल आदि उत्कृष्ट विकल्प के रूप प्रत्यक्ष है। किंतु अभिभावक बच्चों पर अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव डाल इन सुखद गतिविधियों को अंध प्रतिस्पर्धा के रूप में परिणत कर देते हैं।

यही कारण है कि आजकल के बच्चे किशोरावस्था आते-आते तनाव का शिकार हो जाते हैं और उनमें आत्महत्या जैसी मानसिकता पनपने लगती है। हाल ही में 2016 और 2018 के बीच किये गए शोध के अनुसार शहरी इलाकों के शिक्षित परिवारों के युवा किशोरों में आत्महत्या की प्रवृत्ति अधिक है।

ये वो समय चल रहा है जब सभी भाग रहे हैं और इसी भागम भाग में हम बच्चों को भी जबरन शामिल कर रहे हैं, उनसे उनका बचपना छीन ले रहे हैं। हम उन्हें अपनी इच्छाओं और महत्वकांक्षाओं के बोझ तले ऐसा दबा रहे हैं कि उनकी उन्मुक्त स्वछंद अभिव्यक्ति की भावना का ह्रास हो जा रहा है।

समय है परिवर्तन का बच्चों को अभिव्यक्ति का अवसर देने और उन्हें स्वयं अपना लक्ष्य निर्धारित करने देने का।अभिभावकों को ये समझना होगा बच्चे मशीन या रोबोट नहीं हैं। उनमें अच्छे संस्कार के साथ-साथ आत्मविश्वास का भी बीज बोना होगा। ताकि वे बिना दबाव के अपनी मंजिल खुद चुनें और उसे सफलतापूर्वक प्राप्त कर सकें।

लेखिका
श्वेता सिंह,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय सिकटौर,
विकास खण्ड-खोराबार,
जनपद-गोरखपुर।

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