पर्यावरण संरक्षण (पीड़ित नीर)

झील का ठहरा नीर कुछ कह रहा है,
झाँककर देखो तो वो क्या सह रहा है।

जब बहे झरना नीर टप-टप गिरे था,
कंकड़ बन पत्थर गिरें सब सूख रहा है।

हाल क्या ये वक्त का बदला कदाचित,
व्योम के नीचे तो थी प्राकृतिक छटा है।

हरा भरा एक जंगल था नीर साफ सुथरा,
आसमान में दिखती अब न कोई घटा है।

रुप देखा जो मस्त मन ने था प्रकृति का,
अब कहाँ ढूँढें व्यथित मन हो रहा है।

पेड़ के झुण्डों से झाँकती सूरज किरणें,
झील के जल को छुएँ जल हिल रहा है।

आ रही सीधी तपिश अब बिन रोक जल पर,
झील है स्तब्ध कि जल जल रहा है।

इसलिए ठहरा नीर कुछ चाहे कहना,
रोक ले मानव वक्त! कुछ बदल रहा हैं।
                 
रचयिता
श्रीमती नैमिष शर्मा,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय-तेहरा,
विकास खंड-मथुरा,
जिला-मथुरा।
उत्तर प्रदेश।

Comments

  1. बहुत अच्छा नैमिष जी प्रत्येक शब्द दिल को छू गया

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  2. बेहतरीन दिल को छू लेने वाली

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