मनु बड़ी हो गई

गद्य और पद्य के संगम से बने इस लेख में एक लड़की की उस मनोवस्था का वर्णन है जो युवावस्था में कदम रखते ही उसके प्रति माता-पिता और समाज  की बदलती सोच से उत्पन्न होती है और उसे एक लड़की होने की मर्यादाओं में बाँधने के लिए विवश कर देती है। 

प्रस्तुत है इस परिवर्तन को गहराई से महसूस कर रही हमारी प्रकृति और पृथ्वी की आपस की वार्ता....
 प्रकृति -"आजकल हवाओं में खबर गर्म है।
पत्ते भी सरसरा कर खुसफुसा रहे हैं।
बारिश की बूँदें भी जोर से गिरकर सहमति जता रही हैं।
सुना है.......मनु बड़ी हो गई है!"
 पृथ्वी -"अरे! कौन मनु??? वही जो कल तक हवा के साथ उड़ने को लालायित रहती थी। पत्तों की पायल पहन बारिश की बूँँदों मधुर संगीत पर थिरकती थी। पता ही नहीं चला....। तुम्हें किसने बताया????"
 प्रकृति - "तुम्हें नहीं पता....? अरे!कल ही मैंने उसकी माँ के मुख से सुना।"
माँ ने स्वतंत्र एवं मासूम भाव से खिलखिलाती हुई मनु के हाथ को जोर से इशारों में दबा दिया और कहा-
"न हँसना, न बोलना, न लांघना दीवार
यही संस्कार, करने हैं स्वीकार।
बनेंगे तेरे जीवन के आधार।
प्रकृति की अठखेलियों के संगीत के प्यासे कानों को,
माँ ने यही कटु वचनाघात दिया।।

(दुखी होती हुई प्रकृति मन ही मन सोचते हुए)
कल तक मनु के सिर पर माताबपिता का 
 हाथ जो स्नेह की गरमाहट से भरा था।
 आँखें जो वात्सल्य से पूर्ण थी
अचानक ये कैसा परिवर्तन??
अब आँखों में वो वात्सल्य नहीं, चिंता है।
 हाथों में गरमाहट नहीं सिखा रही उँगलियों की क्रियाएँ हैं।
ये क्या.......?????
माँ ने मनु के स्वछंद केशों को तेल लगाकर कसकर बाँध दिया।
चारों तरफ के सौंदर्य को देखती बिजली सी दृष्टि को पलकों के परदे से नीचे कर दिया।
(माता-पिता के इस बदले व्यवहार से क्रोधित पृथ्वी की प्रतिक्रिया)
अरे! क्यूँ कहती हो ऐसी बातें इतनी जोर से???
क्या तुम नहीं जानती कि अभी मनु ने युवावस्था में पहला कदम ही रखा है और जब एक कदम आगे रखते हैं तो दूसरा कदम पीछे ही रहता है।
मैं तो कहती हूँ मनुष्य यदि वृद्ध भी हो जाए तब भी उसे उसके बचपन की तलाश रहती है और कभी-कभी तो वह एक नन्हें बच्चे की तरह सभी जिम्मेदारियों को भूलकर अपनी अवस्था को भूलने की कोशिश करता है। तो मनु तो बचपन के किनारे पर है जहाँ बचपन की नदी की लहरें बार-बार उसे भिगो देती हैं जिससे कि वो खिलखिला उठती हैं। किन्तु सबकी आँखों में अवांछित परिवर्तन उसे सहम जाने के लिए विवश कर देता है।
अब उसके कांधों पर आकाश और महके पुष्पों का साया नहीं बल्कि घर, परिवार और समाज की मान्यताओं की जिम्मेदारी है।
मगर---------- (सोच में डूबी प्रकृति)
उसे कैसे बताऊँ मैं की वह बड़ी हो गई है?
(पृथ्वी कहती है) चिंता ना करो.....
अब उसे ऐसा नहीं करना, अब उसे वैसा नहीं करना। जब उसके माँ बाप की आँखें प्यार नहीं बल्कि कुछ सिखाती रहने वाली शिक्षिका दिखाई देंगी तो वो स्वयं समझ  जाएगी कि शायद जो शोर बाहर है उसका असर घर में भी है और शायद उसे ही मालूम नहीं पड़ा जबकि सबको मालूम है कि वह(मनु)बड़ी हो गयी है

रचयिता
डॉ0 रेणु देवी,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय नवादा, 
विकास खण्ड व जनपद-हापुड़।

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