नव बसंत

खिल उठी है क्यारी क्यारी,
जब से आया है नव बसंत।

मध्यम मध्यम चली बयार मतवाली,
आमों की बौरों से झूम रही है डाली-डाली।
पुष्पों के कुसुमित होने का चला सिलसिला अनंत
जब .. . . . . . . . . .

भ्रमित भ्रमर खोज रहा है नव कलिका,
कोयल मोर पपीहा हुई सब नव ऋतु की मलिका।
वेदनाओं के बादलों का हो रहा अंत
जब . . . . . . . . . . . .

 चाह रहा मन तितली सा बन उड़ जाने को,
पतझड़ के पथ से बसंत ऋतु मोड़ जाने को।
 महके चहके इस ऋतु में सब दिग दिगंत
जब  से   आया  है   नव  बसंत।।

रचयिता
अनुराधा दोहरे,
प्रधानाध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय नगरिया बुजुर्ग,
विकास खण्ड-महेवा,
जनपद-इटावा।

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