लुई ब्रेल

लुई  ब्रेल था नाम  जिसका अलबेला,

अन्ध जीवन का कष्ट था जिसने झेला। 


4 जनवरी 1809 फ्रांस  में थे  वह  जन्मे,

3 वर्ष में  खोया, रंगीन दुनिया  का  मेला।


पिता करते थे, घोड़े की काठी बनाने का काम,

पिता संग बालक  रहता, अनहोनी  से अंजान।


खेलते-खेलते लगा, औजार  आँख में  जाकर,

दृष्टि चली गई, आँखों में छाया गहन अंधकार।


ज्ञान पिपासु  बालक  ने, खोया ना  आत्मविश्वास,

वैलेंटाइन पादरी के शिष्य बने, जगा मन में आस।


'रॉयल इंस्टीट्यूट फॉर द ब्लाइंड'  में  शिक्षा  पायी,

पादरी को चार्ज बर्बर से, मिलने की इच्छा जतायी। 


 चार्ज बर्बर ने, टटोल कर पढ़ने की कूटनीति बनाई,

 लुई के मन में इस बात ने, थी नई  उम्मीद जगायी।


कुछ संशोधन कर बनाया, उन्होंने नई 'ब्रेल लिपि' 

छः बिंदुओं पर, उन्होंने  शिक्षा की नींव भी रखी।


नेत्रहीनों को प्रशिक्षण देकर, मान्यता को प्रार्थना की,

मिली ना सफलता लुई को, कार्य की न सराहना की।


सैन्य कूटनीतिक भाषा  ही समझे, तत्कालीन शिक्षाविद,

मृत्यु पश्चात नेत्रहीनों में, ब्रेल लिपि हुआ बहुत लोकप्रिय।


6 जनवरी 1852 को, लुई जीवन की  लड़ाई  हार गये,

1854 में फ्रांसीसी सरकार, ब्रेललिपि स्वीकार किये।  


1950 को विश्व ब्रेल सम्मेलन मे, 'विश्व ब्रेल' का लुई को मिला सम्मान।

शत्-शत् नमन है तुझे लुई ब्रेल, दृष्टिहीनों का मसीहा तू

 है महान।।


रचयिता
वन्दना यादव "गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक,
विकास खण्ड-डोभी, 
जनपद-जौनपुर।

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