बालमन की चाह

स्वतन्त्र रुप से सीखना
है बालमन की चाह,
नहीं चाहिए सीखने में
उसको कोई दबाव।

क्यों न प्यार से सीखने का
मिले उसे पर्याप्त अवसर,
क्रोध का बालमन पर
पड़ता है बुरा असर।

प्रत्येक बच्चा सीख सके
पाठ्यसामग्री हो संबोधानुरूप,
अवधारणा हो स्पष्ट
जरूरी है चीजों का मूर्तरूप।

करना है बच्चे के लिए
सम्मानसूचक शब्दों का प्रयोग,
होगा उसकी समझ और
आत्मविश्वास का योग।

बालमन की जिज्ञासा शान्त करना
है शिक्षक का दायित्व,
तभी होगी नवांकुर की
सोच परिपक्व।

रचयिता
मंजू गुसांईं,
सहायक अध्यापक,
राजकीय आवासीय प्राथमिक विद्यालय थराली,
विकास खण्ड-थराली,
जनपद-चमोली,
उत्तराखण्ड।

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