185/2024, बाल कहानी- 10 अक्टूबर


बाल कहानी - मेहनत किस्मत खुशी
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रात हो चुकी थी लेकिन आज भी बुधिया के मुख को अन्न का दाना नसीब न हुआ था। वह बच्चों को आधा पेट ही खिला पाई थी। कुछ ही दिनों की ही तो बात है, डेंगू की बीमारी में पति बुधई ने तड़प-तड़प कर प्राण त्याग दिए थे। निष्ठुर गरीबी के चलते ठीक से पति का इलाज भी न वह करा सकी।
आसमान में चाँद को निहारते हुए सोचने लगी कि मेरा पति पहले रिक्शा चलाकर ठीक-ठाक पैसे कमाकर लाता था और बच्चे भी अच्छे से पास के सरकारी पाठशाला में पढ़ रहे थे। निगोड़ी जिन्दगी ने ऐसी करवट ली कि शहर में ऑटो रिक्शा आ गये और पति की कमाई से अब घर न चल पाया।
कुछ दिन तक बचाये हुए पैसे से गुजर-बसर चलता रहा, लेकिन कब तक चलता। अचानक पति बुधई बीमार हुए और घर का पाई-पाई इलाज में चला गया, फिर भी पति काल के गाल में चले गये। दो बेटियाँ विमला आठ वर्ष और कमला छः वर्ष और पुत्र अजय चार वर्ष की जिम्मेदारी अब बुधिया के ऊपर आ गयी। इसी उधेड़बुन में वह खोयी ही थी कि सोचते-सोचते नींद आ गयी।
सुबह हुई तो सूरज माथे पर आ चुका था। बच्चे भूख से बिलख रहे थे।बुधिया ने फैसला किया कि अब गाँव में गुजारा न हो सकेगा। शहर जाकर लोगों के घर का चौका-बर्तन करके वह बच्चों का पेट पालेगी।
पड़ोसियों से कुछ पैसे उधार लेकर बुधिया गाँव से शहर की ओर चल पड़ी।
जल्द ही उसे एक घर मिल गया जो उसे नौकरी देने पर राजी हो गया। इस तरह थोड़े ही दिनों में जीवन की गाड़ी पटरी पर चल पड़ी। बच्चे पढ़ाई करने लगे और बुधिया उन्हें पढ़ाने लगी। दोनों बेटियाँ धीरे-धीरे बड़ी होने लगी। उन्होंने माँ से कहा कि, "माँ! वह भी पास के बच्चों को पढ़ाकर अपनी पढ़ाई भी करेंगी। इस तरह से कुछ पैसे भी घर में आ जायेंगे।"
समय का चक्र चलता गया और कठिन परिश्रम और लगन के बल पर आज उसकी तीनों सन्तानें संघर्ष-पथ पर चलकर आज उस मुकाम पर खड़ी थी, जहाँ से उनके संघर्षों को याद किया जाता।
आज बीस वर्ष बीत चुके हैं। बुधिया के चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ चुकी हैं। आँखों से धुँधला दिखने लगा है। वर्षों से इन आँखों ने अपने बच्चों का संघर्ष देखा है। अब वह घड़ी आ चुकी है, जिसका उसे बेसब्री से इन्तजार था। आज सुबह अचानक तेज बुखार आया, देह ताप से जल रही थी। दोपहर में दरवाजे पर मीडिया के साथ तीनों पुत्र -पुत्रियों का प्रवेश होता है, जिन्होंने आई०ए०एस० परीक्षा उत्तीर्ण कर अपनी माँ को खुशी देने का मन बनाया था।
कमरें में एक साथ माँ को पुकारते हुए सभी की दस्तक होती है लेकिन माँ की कोई आहट नहीं मिलती है। बिस्तर पर आकर जब अजय माँ को झकझोरता है तो कोई हलचल नहीं होती। बुधिया का शरीर निष्प्राण हो चुका था। उसे यह खुशी नसीब नहीं थी। देह ठण्डी हो चुकी थी। सबने कहा कि, "अब इस शरीर को उठाया जाय।" सभी की आँखों से आँसू बह रहे थे।

संस्कार सन्देश -
निःसन्देह मेहनत से किस्मत बदलती है, किन्तु यह भी सच है कि खुशी भी किस्मत से मिलती है।

कहानीकार-
दीपक कुमार यादव (स०अ०)
प्राथमिक विद्यालय मासाडीह,
महसी, बहराइच (उ०प्र०)

कहानी वाचन-
नीलम भदौरिया
जनपद- फतेहपुर (उ०प्र०)

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