बचपन की वृक्षमित्र

बड़ा अपनापन रखती है, वृक्षमित्र यह मेरी है,
वक्त पर काम आती है, यह चंदन नहीं बेरी है।

मैंने बचपन में बेर खाकर, जो गुठली बोयी थी,
उस जीवन की याद दिलाती, स्मृति यह मेरी है।

तब पर्यावरण में, पौधों का महत्व न जानता था,
फिर भी इन छोटे पौधों से, प्यार बहुत मानता था।

वो मुझे अध्यात्म लीन, मौन तपस्वी से लगते थे,
पुष्पों की सुगंध वाला, सुंदर वह संसार बहुत था।

इसी वृक्ष की शाखा में, मेरे बच्चे झूला झूलते हैं,
इसकी छाया में बैठ, दोपहर में कैरम खेलते हैं।

अपने बच्चों को, जब आँगन में खेलते पाता हूँ।
भावविभोर होकर, ख़ुद बचपन मे खो जाता हूँ।

रचयिता
प्रदीप कुमार,
सहायक अध्यापक,
जूनियर हाईस्कूल बलिया-बहापुर,
विकास खण्ड-ठाकुरद्वारा,
जनपद-मुरादाबाद।

विज्ञान सह-समन्वयक,
विकास खण्ड-ठाकुरद्वारा।

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