प्रकृति और जिन्दगी

सिलवटें उधेड़ दो जिन्दगी की,
और खुश रहो जीने के दरम्यान!
हँसते-खेलते, चलते-फिरते बीत जाएगी जिन्दगी
क्यूँ परेशान हो जीने के दरम्यान!!??

ढलती रही मृगमरीचिका सी जिन्दगी,
जीर्ण-शीर्ण हुई इस देह की हरितिमा।
क्यूँ उलझे रहे हम जिन्दगी की मदिरा को पीने के दरम्यान!!??
सिलवटें उधेड़ दो जिन्दगी की
और खुश रहो जीने के दरम्यान!!

क्यूँ महसूस नहीं होता हवा का मधुर स्पर्श!?
मिट्टी की सोंधी सुगंध, प्रतिदिन अम्बर की देव दीपावली!।
सिवान की मुफ्त पार्क और हरियाली!!।।
क्यूँ उलझे रहे हम जिन्दगी की मदिरा को पीने के दरम्यान!?
सिलवटें उधेड़ दो जिन्दगी की..........

लहरें अविरल तराशती पत्थरों को बजरी और रेत में!,
वसुधा भी खुद को तराशी नदियाँ, समुद्र, पर्वत और खेत में!!
हम सीख न सके तराशना इनसे जीने के दरम्यान!!!।।
क्यूँ उलझे रहे हम जिन्दगी की मदिरा को पीने के दरम्यान!?
सिलवटें उधेड़ दो जिन्दगी की......

बादल कड़क कर डाँटते हुए जल देता है
कि इसका उचित उपयोग करना,
नदियाँ गुस्सा कर बाढ़ लाती हैं कि
मुझे बर्बाद करने का जुर्माना भरना!!।
फिर भी हम समझ ना सके इन शिकायतों के दरम्यान
क्यूँ उलझे रहे हम जींदगी की मदिरा को पीने के दरम्यान!सिलवटें उधेड़ दो जिन्दगी की.........

प्रकृति दी हमें मन्द प्राणवायु सी मधुरिमा,
ना समझ सके कीमत उसकी विष  घोल हमनें क्यूँ दिया!!?
तीव्र अन्धड़ के थपेड़ों से,
घरों को उजाड़ कर सीखने का उसने पुन:मौका दिया!!।
फिर भी क्यूँ उलझे रहे हम प्रकृति के सौंदर्य को जीने के दरम्यान!?
सिलवटें उधेड़ दो जिन्दगी की और खुश रहो जीने के दरम्यान!।।।।।

रचनाकार:-
बिंदू राय,
प्राथमिक विद्यालय सुरतापुर,
मोहम्मदाबाद  गाजीपुर।


Comments

Total Pageviews