धरा की व्यथा

बरसों से शांत धरा का आज,
हृदय यूँ पीड़ायुक्त हुआ,
जैसे घायल मछली का तन,
जल से बिलकुल मुक्त हुआ।
मानव मन के द्वेष ने आज,
चरमावस्था को प्राप्त किया,
तो त्राहि-त्राहि कर वसुंधरा ने,
मानव को फटकार दिया।
यह सोच वह कुछ सहम गयी,
मानव ने न यदि रहम किया।
क्या वह जीवित रह पाएगी?
न वह इतना सह पाएगी,
कदाचित ही कुछ समय जीकर,
स्वयं ही स्वयं में मिल जायेगी।
ओ मानव कुछ सोच ठहरकर,
यूँ समय  न तू बर्बाद कर,
मन का द्वेष नष्ट कर,
अशांत धरा को शांत कर।

रचयिता
पूजा सचान,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय मसेनी(बालक) अंग्रेजी माध्यम,
विकास खण्ड-बढ़पुर,
जनपद-फर्रुखाबाद।

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