फासले मंजिलों से बढ़ते रहे

राहें चलती रहीं ज़िन्दगी की मगर,
फासले मंजिलों से बढ़ते रहे।
हाथ थामा छिटक कर वो दामन गए,
वो बहाने नवीन नित गड़ते रहे।

राहें चलती रहीं ज़िन्दगी की मगर,
फासले मंजिलों से बढ़ते रहे….

हर शिकायत में लब पे मेरा नाम था,
अपनी नाकामी माथे मढ़ते रहे।
पाक दामन चले थे वो लेकर ज़रा,
सारी गलियों में पर्चे उड़ते रहे।

राहें चलती रहीं ज़िन्दगी की मगर,
फासले मंजिलों से बढ़ते रहे….

हाथ खाली था आने और जाने में भी,
दाग़ चोरी के जाने क्यों लग रहे?
राहें चलती रहीं ज़िन्दगी की मगर,
फासले मंजिलों से बढ़ते रहे….

बात गुजरी हुई है ना गुजरेगी यूँ,
साँस रुकती नहीं है चलती है क्यूँ?
कोई कर्ज़ा मेरी रूह जानिब पे है?
रक्त  अश्क - ए - ज़िगर से अदा कर रहे।

राहें चलती रहीं ज़िन्दगी की मगर,
फासले मंजिलों से बढ़ते रहे….

मेरी महफ़िल के मेहमान मेहमान हुए,
वो यूँ आये - गये बस मेहरबान हुए।
आग ऐसी जली कि जली ना बुझी,
चार यारों के कांधे के बोझा रहे।

राहें चलती रहीं ज़िन्दगी की मगर,
फासले मंजिलों से बढ़ते रहे….

रचयिता
नवीन कुमार,
सहायक अध्यापक,
माडल विद्यालय कलाई,
विकास खण्ड-धनीपुर,
जनपद-अलीगढ़।

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