जिंदगी का सफर

ऐ जिंदगी कभी समझा दे मुझे सफर अपना,
बहता तेरी लहरों में चल रहा हमसफा अपना।
हो गुलजार बस यही सोचती हूँ,
गिरकर उठना, उठकर चलना बस यही सोचती हूँ।

हो जब निराशा एकदम से तू उठा देती है,
एक पल गिरा दूसरे पल में सजा देती है।
रातों के कठिन परिश्रम का तू उपहार देती है,
गिरते हुये गज को भी तू हुँकार देती है।

तू सबका अनुभव अपने पास बनाती है,
गिरकर उठना उठकर चलना सबको सिखाती है।
हर नये मुर्गे की बाग से सुबह गुलजार होती है,
और फिर से अतीत पर वर्तमान की हुँकार होती है।

ऐ जिंदगी कभी समझा दे मुझे सफर अपना,
बहता तेरी लहरों में चल रहा हमसफा अपना।

रचयिता
अंजली मिश्रा,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय असनी प्रथम,
शिक्षा क्षेत्र-भिटौरा,
जनपद-फतेहपुर।

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