वायरस का खौफ

क्यों रक्तरंजित होने लगी है जमीं, 
क्यों छाई है फिजाओं में ये गमी?
 कैसे शुरू हो गई कुदरत की यह प्रथा,
 जिस में समाई है हर रोज एक नई व्यथा।
 क्यों संकट के बादल यूँ छाने लगे,
 क्यों खिलते फूल मुरझाने लगे?
 क्यों दिलों में मौत का आतंक यूँ समाने लगा,
 क्यों इंसान इंसान को देख डर जाने लगा?
क्यों साँसों से साँसों में जहर घुल जाने लगा,
 क्यों मानव मानव को छूने में घबराने लगा?
 क्यों कोई अच्छी खबर आती नहीं अखबार में,
 क्यों बंद हैं ताले स्कूल दफ्तर और बाजार में?
 क्यों घर से निकलते ही हर कदम पतन की ओर बढ़ जाने लगा,
 क्यों सहमी जुबां पर ये वायरस का खौफ चढ़ जाने लगा?
क्यों जमीं मृत शैया बन जाने लगी,
 क्यों प्रकृति अपना वीभत्स रूप दिखलाने लगी?
क्यों इंसान अपने ही घर में कैद हो जाने लगा,
क्यों पंछी बेखौफ गगन में उड़ जाने लगे?
यह बदला है  प्रकृति से दूर जाने का,
या बदला है प्रकृति ने अपना रूप।
क्या हवाएँ फिर से अपना रुख बदलेंगी,
क्या फिर से खिलेगी इस जहां में हँसी की धूप?
शायद, वक़्त बदल जाए वक्त के साथ,
पर उनका क्या होगा जिनके छूट रहे हैं अपनों के हाथों से हाथ?

रचयिता
अनुराधा दोहरे,
प्रधानाध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय नगरिया बुजुर्ग,
विकास खण्ड-महेवा,
जनपद-इटावा।

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