हम कितने अंधे हो जाते

धूल-धूसरित हुए जगत में,
आज सुनो सब रिश्ते नाते।
इस पैसे की चकाचौंध में,
हम कितने अंधे हो जाते।।

जिसकी जेब भरी है यारों,
सब जन जान उसी पर वारें।
सरस्वती का मान न जानें।
लक्ष्मी जी के चरण पखारें।।

चाँदी की खन-खन में यारों,
मानवता के स्वर खो जाते।
इस पैसे की चकाचौंध में,
हम कितने अंधे हो जाते।।

अधिक बोलने से क्या होगा,
कम बोलें पर अच्छा बोलें।।
हम अपनी कड़वी बोली से,
जहर किसी के मन ना घोलें।।

जाने-अनजाने हम कितने,
बीज वितृष्णा के बो जाते।
इस पैसे की चकाचौंध में,
हम कितने अंधे हो जाते।।

सुनो संतुलित और संयमित,
भाषा और विचार चाहिए।
लगे सदा जो सबको नीका,
ऐसा अब व्यवहार चाहिए।।

इस कड़वी बोली से ही तो,
स्वजन पराये सब बन जाते।
इस पैसे की चकाचौंध में,
हम कितने अंधे हो जाते।।

रचयिता
प्रदीप कुमार चौहान,
प्रधानाध्यापक,
मॉडल प्राइमरी स्कूल कलाई,
विकास खण्ड-धनीपुर,
जनपद-अलीगढ़।

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