सुनो न

कान्हा आज भी मेरा प्रेम अधूरा है,
मन में तड़प लिये, मिलन की आस में
दिन - रात राह  निहारता रहता है।
शायद, मेरे प्रेम  की  कशिश
खींच  लाये तुम्हें इस ओर।

हमने तो प्रेम को पल - पल
महसूस किया  है,
प्रेम आकाश  सा फैला,
पाताल  सा गहरा और
एहसास सा मिठास लिये हुए है।

प्रेम में पाना नहीं, देना होता है।
प्रेम तो समर्पण है, किसी के प्रति
ऐसा  समर्पण जो, स्व (अहम) 
 का भाव ही मिटा देता है।

कान्हा  हमारा  प्रेम अधूरा है,
तभी तो तुम
मेरे रोम रोम में बसे  हो।
जो पूर्ण हो जाए, वह प्रेम
 (साक्षात अमृत रस पान) 
को पाने की इच्छा खत्म कर देगा।

हम तो प्रेम के एहसास के
अधूरा  होने में ही तुम्हारे हैं,
जो पूरा हो जायेगा तो
तुमसे विलग होना होगा और

प्रेम और कान्हा अलग हो ही नहीं सकते,
प्रेम  तो  वह  प्रसाद है,
जिसे पाकर जीवन धन्य हो जाता है।

हे कान्हा! अपनी इस ज्योतिपुँज
( प्रेम)  को मेरे हृदय में
सदैव विराजमान रखना।

रचयिता
वन्दना यादव "गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक,
विकास खण्ड-डोभी, 
जनपद-जौनपुर।

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