उत्तराखण्ड का लोकपर्व सातों आठों(गौरा-महेश्वर पूजन)

उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है पूरी दुनिया  भगवान, प्रकृति को विभिन्न रूपों में पूजा करती है। उसी प्रकार उत्तराखंड में भी विभिन्न रूप में आस्थापूर्वक पूजन किया जाता है। देवभूमि होने के कारण उत्तराखंड में जगह जगह पर विभिन्न मंदिर और देवालय इस बात का प्रमाण है की ईश्वर और मनुष्य के बीच श्रद्धा भाव हमेशा बना रहा है। समय-समय पर उनसे संबंधित अनेक पर्व व त्यौहार मनाए जाते हैं।

सातों आठों पर्व का महत्व
उत्तराखंड की देवभूमि में एक ऐसा अनोखा पर्व (जिसे सातों व आठों का पर्व भी कहते हैं) मनाया जाता है। यह पर्व लगभग पूरे उत्तराखंड में कई जगहों पर मनाया जाता है लेकिन संपूर्ण पिथौरागढ़ जनपद में यह बड़े धूमधाम व हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
सातों व आठों का पर्व
ऐसा माना जाता है यह देवभूमि भगवान भोलेनाथ को समर्पित है। इस पर्व के दौरान माता पार्वती को बड़ी दीदी व भगवान भोलेनाथ को जमाई राजा के रूप में सम्मान दिया जाता है और उनकी पूजा आराधना की जाती है। ऐसा माना जाता है कि माता गौरी भगवान भोलेनाथ से रूठकर अपने मायके चली आती हैं। जैसे किसी परिवार की बेटी शादी के बाद जब अपने पति के साथ पहली बार मायके आती है। तो उस वक्त परिवार के लोगों के मन में जो उत्साह और उमंग रहता है और जमाई राजा को जो स्नेह और सम्मान दिया जाता है। उसी प्रकार का आदर, सम्मान व स्नेह भोलेनाथ को भी दिया जाता है।
बिरूड़ पंचमी(बिरूड़े भिगाना)
इस त्यौहार की शुरुआत भाद्रपद मास की पंचमी तिथि से होती है। इसे बिरूड़ पंचमी भी कहते हैं। इस दिन हर घर में ताँबे के एक बर्तन में पाँच अनाजों (मक्का, गेहूँ, गहत, ग्रूस (गुरुस) व कलौं ) को भिगोकर मंदिर के समीप रखा जाता है। इन पंचानाजों को भिगाने आने से पहले आस-पड़ोस में साझा करने की भी रीति है। इन अनाजों को सामान्य भाषा में बिरूड़ या बिरूड़ा भी बोला जाता है क्योंकि ये अनाज औषधीय गुणों से भी भरपूर होते हैं व स्वास्थ्य के लिए भी अति लाभप्रद होते हैं। इस मौसम में इन अनाजों को खाना अति उत्तम माना जाता है। इसीलिए इस मौके पर इन्हीं  अनाजों को प्रसाद के रूप में बाँटा एवं खाया जाता है। इन बिरूड़ों को लोहे के भदेले में भून लिया जाता है और ताजी छाछ (मट्ठे) के साथ इन अंकुरित दालों का पौष्टिक आहार दो-चार दिन तक किया जाता है।       
सप्तमी पर्व
दो दिन बाद सप्तमी के दिन शादीशुदा महिलाएँ पूरे दिन व्रत रखती हैं और दोपहर बाद अपना पूरा सोलह श्रृंगार कर हरे-भरे खेतों में निकल पड़ती हैं। धान के खेतों में एक विशेष प्रकार का पौधा (जिसे सौं का पौधा कहते हैं) भी उगता है। उस पौधे को महिलाएँ उखाड़ लेती हैं और साथ में कुछ धान या तिल अन्य पौधों से माता पार्वती की एक आकृति बनाई जाती है। फिर उस आकृति को एक डलिया में थोड़ी सी मिट्टी के बीच में स्थापित कर दिया जाता है। उसके बाद उनको नए वस्त्र व आभूषण पहनाए जाते हैं। पौधों से बनी इसी आकृति को गमरा या माता गौरा का नाम दिया जाता है।
फिर माता गौरा का सोलह श्रृंगार किया जाता है। उसके बाद महिलाएँ गमरा सहित डलिया को सिर पर रखकर लोकगीत गाते हुए गाँव में वापस आती हैं। माता गौरा को गाँव के ही किसी एक व्यक्ति के घर पर पंडित जी द्वारा स्थापित कर पूजा अर्चना की जाती है।
फिर पंचमी के दिन भिगोए गए पाँचों अनाजों के बर्तन को नौले (गाँव में पानी भरने की एक सामूहिक जगह) में ले जाकर उन अनाजों को पानी से धोया जाता है। फिर इन्हीं बिरूड़ों से माता गौरा की पूजा अर्चना की जाती है। इस अवसर पर सप्तमी के दिन शादीशुदा सुहागिन महिलाएँ गले व हाथ में पीला धागा (जिसे स्थानीय भाषा में डोर कहते हैं ) बाँधती हैं और अष्टमी के दिन गले में दुब ज्योड़ पहनती हैं। यह अखंड सुख-सौभाग्य व संतान की लंबी आयु की मंगल कामना के लिए बाँधा जाता है।

अष्टमी पर्व
ऐसा माना जाता है कि माता गौरी भगवान भोलेनाथ से रूठकर अपने मायके चली आती हैं इसीलिए अगले दिन अष्टमी को भगवान भोलेनाथ माता पार्वती को मनाने उनके मायके चले आते हैं। इसीलिए अगले दिन महिलाएँ फिर से सज धज कर धान के हरे-भरे खेतों में पहुँचती हैं और वहाँ से सौं और धान के कुछ पौधे उखाड़कर उनको एक पुरुष की आकृति में ढाल दिया जाता है उन्हें महेश्वर बोला जाता है।
फिर महेश्वर को भी एक डलिया में रखकर उनको भी नए वस्त्र आभूषण पहनाए जाते हैं और उस डलिया को भी सिर पर रखकर नाचते गाते हुए गाँव की तरफ लाते हैं और फिर उनको माता पार्वती के समीप ही पंडित जी के मंत्रोच्चार के बाद स्थापित कर दिया जाता है। माता पार्वती व भगवान भोलेनाथ को गमरा दीदी व महेश्वर भीना (जीजाजी) के रूप में पूजा जाता है। साथ ही उनको फल व पकवान भी अर्पित किए जाते हैं।

इस अवसर पर घर की बुजुर्ग महिलाएँ घर के सभी सदस्यों के सिर पर इन बिरूड़ों को रखकर उनको ढेर सारा आशीर्वाद देती हैं तथा उनकी लंबी आयु व सफल जीवन की मनोकामना करती हुई उनको दुआएँ देती हैं। पिथौरागढ़ जिले के अंतर्गत कुमौड़ क्षेत्र में जगत विख्यात हिलजात्रा नामक लोक पर्व का आयोजन भी इसी समयावधि में किया जाता है।
फिर अगले तीन-चार दिन तक गाँव में प्रत्येक शाम को खेल लगाते हैं जिसमें महिलाएँ और पुरुष गोल घेरे में एक दूसरे का हाथ पकड़कर नाचते-गाते हुए इस त्योहार का आनंद उठाते हैं। और अपने जीवन के लिए व पूरे गाँव की सुख समृद्धि व खुशहाली की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ से प्रार्थना करते हैं कि वह सदैव उनकी रक्षा करें वह उनकी मनोकामनाओं को पूर्ण करें।
विसर्जन(सिलादेना)
चार-पाँच दिन ब्राह्मण समाज गौरी और महेश्वर की पूजा-अर्चना व गीत  में व अन्य समाज में झोड़ा, चाँचरी और ठुलखेल लगाकर नाचते गाते व हर्षोल्लास के साथ व्यतीत हो जाते हैं। उसके बाद गौरा और महेश्वर को एक स्थानीय मंदिर में बड़े धूमधाम से लोकगीत गाते व दमुआ बजाते हुए ले जाया जाता है।जहाँ पर उनकी पूजा अर्चना के बाद विसर्जित  (सिला दिया) कर दिया जाता है।
इस पर्व में माता गौरी को मायके से अपने पति के साथ ससुराल को विदा किया जाता है। इस अवसर पर गाँववाले भरे मन व नम आँखों से अपनी बेटी गमरा को जमाई राजा महेश्वर के साथ ससुराल की तरफ विदा कर देते हैं तथा साथ ही साथ अगले वर्ष फिर से गौरा के अपने मायके आने का इंतजार करते हैं।
फौल फटकना एवं सिसूण (बिच्छूघास)लगाना और स्वांग करना।
इस अवसर पर एक अनोखी रस्म भी निभाई जाती है जिसमें ननदें कपड़ा ओढ़कर हँसी-ठिठोली के बीच सभी को सिसूण (बिच्छूघास ) लगाती हैं और स्वांग करती हैं फिर चादर या एक बड़े से कपड़े के बीचों-बीच कुछ बिरूड़े व फल रखे जाते हैं। फिर दो लोग दोनों तरफ से उस कपड़े के कोनों को पकड़कर उसमें रखी चीजों को ऊपर की तरफ उछालते(फौल फटकते) हैं। कुँवारी लड़कियाँ व शादीशुदा महिलाएँ अपना आंचल फैलाकर इनको इकट्ठा कर लेती हैं। यह बहुत ही शुभ व मंगलकारी माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि अगर कोई कुँवारी लड़की इनको इकट्ठा कर लेती हैं तो उस लड़की की शादी अगले पर्व से पहले-पहले हो जाती है।
पूजा अर्चना
सातों व आठों पर्व एक ऐसा लोक पर्व है जो उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर को दर्शाता है। यह पर्व बहुत ही अनोखा व अद्भुत है और बड़े उल्लास के साथ मनाया जाता है।

संकलन एवं प्रस्तुति
रमेश चंद्र जोशी(सत्यम जोशी),
सहायक अध्यापक, 
रा0 प्रा0 वि0 बैकोट,
विकास खण्ड - धारचूला,
जनपद - पिथौरागढ़,
उत्तराखण्ड।

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