संत शिरोमणि रैदास

जन्म  लियो  प्रभु  काशी  नगरी, नाम  भयो  रविदास,
कर्म  पंथ  सर्वोच्च रखा और नहीं कोई  दूजी आस।

अद्भुत छवि आये माँ कालसा व पितु संतोख के आँगन में,
संतो की संगति से मिले, दर्शन को रखते सदा निज पास।

छोटी उम्र  में  हुआ  विवाह,  लोना देवी  के साथ,
पुत्र रत्न पायो फिर, नाम दियो उन्हें अपना विजयदास।

मेहनत से प्राप्त आय से, करते परिवार का भरण-पोषण,
कमाई का एक सिक्का जब, दास ने माँ को किया अर्पण।

निश्छल मन  के अर्पण  से, प्रसन्न  हुई  प्रकटी  माँ  गंगे,
रत्नजड़ित कंगन देकर, आशीष दिया जियो संग परिहास।

अपने धुन  में  धूनी  रमाये, पद गाये  दिन-रैन रैदास,
पाखंडियों  ने जाल बिछाया, जा पहुँचे दरबार रघुराज।

बोले चोरी करके  लाया, कंगन मिले रानी  को उपहार,
बात बिगड़ती देख राजन ने, बुलवाया उन्हें राजदरबार।

बोले सच कहना तुम, मिला कहाँ कंगन तुमको चर्मकार,
माँ गंगे का मैं सेवक हूँ, माँ ने किया मुझ पे उपकार।

मिला आदेश भक्त को, पुकारो अपने माँ को बारम्बार,
काशी की जनता देखेगी, कैसे हुआ तू माँ का इतना खास।

द्रवित हृदय तब  पुकार लगाये, काठ में भरकर गंगाजल,
प्राण त्याग दूँ यहीं  मैं माते, जो न प्रकटी तू इन अश्रुजल।

सुन पुकार प्रकटी जब माता, लियो दूजा कंगन कठवत के जल,
नतमस्तक नर-नार हुए, जय जयकार हुआ रैदास का प्रबल।

जन-जन में ख्याति फैली, वो अदभुत विचारों से परिपूर्ण,
रामानन्द के शिष्य हुए तो, भक्ति मार्ग को बल मिला पूर्ण।

माघ मास की पूर्णिमा को, अवतरण दिवस मनायें हम बार-बार,
नमन करूँ ऐसे महापुरुष को, कोटि-कोटि मैं बारम्बार।

रचयिता
वन्दना यादव "गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक,
डोभी, जौनपुर।

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