युद्ध का शंखनाद

दहल  गई  भारत  भूमि,  दहली  फिर  से  घाटी  है।
शीश काट दो दुश्मन के, पुकारे  क्षितिज व माटी  है।

आँखों  में  खून  है  उतरा, भुजा   खूब  फड़कती  है,
दिखला दो 56 इंच का सीना, बनके कहर बरसती है।

बैराज  नहीं, लाचार  नहीं, मानवता  के  सेवक  हैं हम,
40  के  बदले  400 सौ  के, छलनी  करना  सीना  है।

क्रूर  घिनौनी  हरकत  से वो, बाज  कभी  नहीं  आएँगे,
भारत माँ  के लाल उसे, अब  उसकी औकात दिखाएँगे।

आँचल  सूना, माँग  सूना, कलाई  की  राखी  टूट  गई,
धीरज  धरते - धरते अब, सब्र  की  बाँध भी  छूट  गई।

खौल रहा  जो नस - नस में, लहू जवानों  के  बदला  लो,
देश के सत्ताधारी जागो, खुले युद्ध का शंखनाद  कर दो।

सिन्दूर  धूली  माँगें चीखें, कब  तक  शहादत   होएगी,
कितनी  लाशें  बिछेंगी  ऐसे  कब  तक   धरती  रोयेगी।

वक्त  चीख  के  यही पुकारे, आंतक  को गर्त दिखला दो,
370  मिटा   के  तुम,  पूरा  पाक  रक्त  से  नहला  दो।

खोखले  संवादों  में  अब, मत  अक्सर अवसान  करो,
शीश से नख तक फाड़ के रख दो, उनका काम तमाम करो।

रचयिता
वन्दना यादव "गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक,
डोभी, जौनपुर।

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