गुरु रविदास का लोकतांत्रिक कल्याणकारी राज्य : "बेगमपुरा शहर"

मध्यकालीन भारतीय समाज में फैली विषमताओं, कुरीतियों, वर्ण, धर्म, जाति-पाति, छुआछूत, पाखंडों और अन्धविश्वासों को दूर करने के लिये बड़े-बड़े संतों, ऋषियों और कवियों ने अपनी कालजयी रचनाओं से सार्थक प्रयास किये, उन्हीं महान हस्तियों में से सन्त शिरोमणि गुरु रविदास जी एक थे।

             15वीं सदी के महान संत, कवि, समाज सुधारक और दार्शनिक गुरु रविदास जी का जन्म सन 1433 में माघ मास की पूर्णिमा को काशी के निकट मंडूर गाँव में माँ कलसा देवी और बाबा संतोख दास के घर में हुआ।

 "चौदह सौ तैंतीस, माघ सुदी पंदरास।
दुःखियों के दुःख को हरने, परगटे सिरी रैदास।।"

                गुरु रविदास की शादी लोना देवी के साथ हुई, जिससे उन्हें एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसका नाम विजयदास रखा। उनका पैतृक व्यवसाय चमड़े की जूतियाँ बनाना था, लेकिन उन्होंने कभी अपने कर्म को तुच्छ नहींं माना। वो अपने कर्म को ईश्वर की भक्ति की भाँति ही सर्वश्रेष्ठ मानते थे। इसलिये उन्होंने कभी ईश्वर की भक्ति का दिखावा न करके पवित्र मन से अपने कर्म को प्रथम पूज्य माना। वो अपने कर्म से कभी समझौता नहीं करते थे और अपने कर्म के प्रति समर्पित रहते थे। इसीलिए उन्होंने कहा - "मन चंगा तो कठौती में गंगा"। गुरु रविदास जी बचपन से ही परोपकारी, दयालु, ईश्वर के बहुत बड़े भगत एवं निडर प्रवृत्ति के थे। 

सन्तशिरोमणि गुरु रविदास ने भक्ति आंदोलन को अपने अनूठे व्यक्तित्व से एक नयी दिशा प्रदान की। उन्होंने अपनी वाणी के द्वारा जाति प्रथा पर, पाखण्ड और आडम्बरों और उस समय समाज में व्याप्त कुरीतियों पर कठोर प्रहार किया और लोगो को एकता, प्रेम, भाईचारे, सहयोग और बराबरी का पावन सन्देश दिया। उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा एक आदर्श राज्य की परिकल्पना लोगों के सम्मुख प्रस्तुत की, जिसे उन्होंने 'बेगमपुरा शहर' का नाम दिया। उनके बेगमपुरा शहर में हर कोई बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी घृणा के, बिना किसी दुःख-दर्द के, बिना किसी अपमान के और बिना किसी डर के प्रेम और इंसानियत के साथ आनन्द से शांतिपूर्वक रह सके।

"ऐसो चाहू राज मैं, जहाँ मिलै सबन को अन्न।
छोटे-बड़े सब सम बसै, रविदास रहै प्रसन्न।।"

जाति प्रथा पर करारी चोट की :-

"जात-पात के फेर म्ह, उलझ रहे सब लोग।
मानवता को खा रहया, रैदास जात का रोग।।"

"जाति जाति में जाति है, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सकै, जब तक जाति न जात।।"

"जाति-पाति पूछे ना कोई।
हरि को भजै सो हरि को होई।।"

गुलामी के दर्द को दर्शाते हुए रैदास कहते है कि :-

"पराधीनता पाप है, जान लेहु रे मीत।
रैदास दास पराधीन से, कोन करे है प्रीत।।"

"पराधीन का दीन क्या, पराधीन बेदीन।
रैदास दास पराधीन को, सब ही समझे हीन।।"

हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति में व्याप्त पाखण्ड व आडम्बरों को आड़े हाथों लिया :-

"मंदिर से कुछ घिन नही, मस्जिद से नहीं प्यार।
दुनू में अल्लाह-राम नही, कहै रविदास चमार।।"

"किरसन, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद, कतेब, कुरान, पुरानन, सहज एक नहीं देखा।"

हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश दिया :-

"हिन्दू तुरक नही कुछ भेदा, सभी में एक रक्त अर मासा।
दोउ एकउ दूजा नाहि, पेख्यो सोई भगत रैदासा।।"

"रैदास कनक अर कंगन माहि, जिमि अंतर कछु नाहि।
तैसे ही अंतर नही, हिन्दूअन अर तुरकन माहि।।"

रविदास जी ने जाति को नही गुण-कर्म और सत को श्रेष्ठ बताया-

"रैदास बामण ना पूजिये, जो होवै गुणहीन।
पूजो चरण चंडाल के, जो हो शील प्रवीण।।"

"रैदास सत मत छोड़िये, जो लग घट मै प्रान।
दूसर कोई धरम नाहि, जग म्ह सत समान।।"

गुरु रविदास ने अपनी वाणी और रचनाओं से समाज में एक नई चेतना का संचार किया। उन्होंने समाज में फैली असमानताओं और कुरीतियों को दूर करने के लिए अनेक मधुर व रसीली कालजयी रचनाओं के द्वारा एक आदर्श राज्य "बेगमपुरा शहर" की परिकल्पना लोगों के समक्ष रखी। उन्होंने अपने राज्य में समानता, प्रेम, भाईचारा, सहयोग, ईश्वर एक और उसकी सर्वोच्चता, कर्म की प्रधानता और शिक्षा पर बल दिया। उन्होंने गरीब लोगो को कर्म करके अपने पैरों पर खड़े होने की सीख दी। उन्होंने लोगों से पाखण्ड और अन्धविश्वास को त्यागकर सच्चाई के पथ पर आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया। उनके द्वारा दिखाया गया बेगमपुरा शहर कुछ और नहीं, आज का कल्याणकारी राज्य ही है।  

गुरु रविदास का दर्शन अपने आप में विशद है, जिसका अनुसरण आज भारत ही नही पूरा विश्व कर रहा है।
गुरु रविदास के आध्यात्मिक दर्शन से प्रभावित होकर मीराबाई ने उन्हें अपना गुरु बनाया और उनकी शिक्षाओं को आगे जन-जन तक पहुँचाया।

"गुरु मिलिया रविदास जी, दीनी ज्ञान की गुटकी।
चोट लगी निजनाम हरि की, म्हारे हिवड़े खटकी।।" 

उनके गुरुभाई व समकालीन क्रांतिकारी समाज सुधारक कबीरदास ने उनको संतों में शिरोमणि बताया।
सन्त शिरोमणि गुरु रविदास ने समाज में फैली विषमताओं को दूर करने का सीधा और सरल उपाय अपने 'आपा' को मारना बताया। वो कहते थे कि पाखण्ड और आडम्बर ही धर्म के पतन का कारण हैं, कहीं जाने की जरूरत नहीं, बस अपना कर्म सच्ची निष्ठा से करो और सबसे प्यार करो। यही सबसे बड़ी भगती है। भगती में पाखण्ड का कोई स्थान नही। उन्होंने कहा था कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।

"कहै रविदास तेरी भगति दूर है, भाग बड़े सो पावै।
तज अभिमान मेट आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।।" 

एक बार एक फकीर भगत रैदास जी के पास आये और बोले कि ये एक चमत्कारी पत्थर है और ये लोहे को छुआने से उसे सोने में बदल देता है। उस फकीर ने रैदास से उस पत्थर को लेने के लिये कहा और धनी बनने को कहा। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया।
उस फकीर ने रैदास से कहा कि इस पत्थर को अपने पास रख लो मैं इसे लौटते वक्त वापस ले लूँगा साथ ही इसको अपनी झोपड़ी के किसी खास जगह पर रखने को कहा। रैदास ने उसकी ये बात मान ली। वो फकीर कई वर्षों बाद लौटा तो पाया कि वो पत्थर उसी तरह रखा हुआ है। रैदास के इस अटलता और धन के प्रति निर्लिप्तता से बहुत खुश हुए। उन्होंने वो कीमती पत्थर लिया और वहाँ से गायब हो गये। गुरु रविदास ने हमेशा अपने अनुयायियों को सिखाया कि कभी धन के लिये लालची मत बनो, धन कभी स्थायी नहीं होता, इसके बजाय आजीविका के लिये कड़ी मेहनत करो। मेहनत का फल ही मीठा होता है।

                           एक बार पंडित गंगा नहाने जा रहा था तो जब वो रविदास की कुटिया के निकट से गुजरा तो रैदास ने उसे एक सिक्का दिया और कहा कि ये सिक्का गंगा मैया को देना यदि वो अपने हाथों से ले। पंडित ने वो सिक्का हँसते हुए अपनी नोली में रख लिया। पंडित जी वहाँ पर पहुंचकर गंगा नहाये और वापस अपने घर लौटने लगे बिना गुरु जी का सिक्का गंगा माता को दिये। कुछ दूर चलने के बाद उसे महसूस किया कि वो रैदास भगत का सिक्का गंगा में डालना भूल गया, वो दुबारा से नदी के किनारे वापस आया और रैदास की बात याद कर बोला, गंगा मैया, ये सिक्का रैदास भगत ने दिया है और कहा है कि गंगा मैया अपने हाथों से ले तो देना। यह सुनते ही गंगा माँ पानी से बाहर निकली और रैदास भगत के सिक्के को स्वीकार किया। माँ गंगा ने संत रविदास के लिये सोने का एक कंगन भेजा। पंडित अपने घर वापस आया और वो कंगन रैदास को देने की बजाय अपनी पत्नी को दे दिया। लोभवश पंडित की पत्नी उस कंगन को बाजार में बेचने गयी। सोनार ने कंगन को खरीदा उस अद्भुत कंगन को राजा के पास इनाम के लोभ में ले गया। राजा  और रानी को वो नायाब कंगन बहुत पसंद आया, लेकिन रानी बोली कि एक कंगन की क्या उपयोगिता है। अतः मेरे लिये एक और ऐसा ही कंगन लाने को कहा। सुनार घबरा गया क्योंकि ये कंगन अपने आप में एक था और उस जैसा वो बना नही सकता था, अतः उसने राजा को सच्चाई बताई कि उसके पास ये नायाब कंगन कहाँ से आया। राजा ने पंडित को बुलाया तो पता चला कि कंगन गंगा मैया ने भगत रैदास के लिए दिया था। उसने लोभवश कंगन रैदास को ये सोचकर नहीं दिया कि उसे क्या पता कि गंगा मैया ने उसके लिये कंगन दिया है, अपनी पत्नी को दे दिया। रानी ऐसे ही दूसरे कंगन के लिये हठ कर बैठी तो राजा भगत रैदास की कुटिया में पहुँचे। राजा को अपनी कुटिया में आया देख रैदास ने महाराज का स्वागत किया और पंडित की तरफ देख बोले - पंडित जी, गंगा मैया ने मेरी भेंट स्वीकार कर ली, क्या उन्होंने मेरे लिये कोई भेंट नही दी। इस पर राजा बोले कि रैदास ये कंगन दिया था गंगा मैया ने और इसने लोभवश आपको न देकर अपनी पत्नी को दे दिया जो लोभवश इसे बेच आई और सुनार बड़ी इनाम के लोभ में इसे मेरे पास लाया और इसे देखकर रानी ने जिद कर ली कि ऐसा ही दूसरा कंगन चाहिये वरना मैं अपनी जान दे दूँगी। ये सुनार कहता है कि ऐसा कंगन तो कहीं भी नहीं मिल सकता ये तो नायाब कंगन है। रविदास ने मुस्कुराते हुये कहा कि महाराज लो मेरी इस कठौती में से कंगन निकाल लो। राजा जब कठौती में देखने लगा तो स्तब्ध रह गया, उन्हें कठौती में गंगा मैया बहती दिखाई दी और उसमें अनगिनत वैसे ही नायाब कंगन बह रहे थे। उन्होंने एक कंगन निकाला और रैदास भगत के चरणों में नतमस्तक हो गए। उन्होंने कहा कि यदि मन पवित्र हो, किसी प्रकार का लोभ-लालच न हो और अपने कर्म पर पूरा ध्यान दे तो हमें किसी भी तीर्थ आदि पर जाने की जरूरत नहीं क्योंकि सब तीर्थ और भगवान मन में निवास करते हैं। तभी तो गुरुजी ने कहा है कि मन चंगा तो कठौती में गंगा।
राजा ने घोषणा की कि कोई इस तरह के कंगन नहीं लेगा, पंडित अपने किये पर बहुत शर्मिंदा था क्योंकि उसने गुरुजी को धोखा दिया था। वो रविदास जी से मिला और माफी के लिये निवेदन किया।

गुरु रविदास की जयंती पर लोग उनके गीतों, दोहो को सुनते, सुनाते और गाते हैं। लोग रात को जागरण करके गुरूजी की बाणी का रसास्वादन लेते है और उनकी भव्य झांकी निकालकर उनके द्वारा दी गयी शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करते हैं। भंडारा करके एक-दूजे का मुँह मीठा कर गुरु रविदास की पूजा-अर्चना करते हैं।

लेखक
भूपसिंह भारती, 
शिक्षक,
रावमा विद्यालय पटीकरा,
खण्ड नारनौल, 
जिला महेन्द्रगढ़ (हरियाणा)
पिन 123001, 
मो0 9416237425

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