दीपमाला का दृढ़ निश्चय

आज के सरकारी विद्यालयों में शिक्षक बच्चों को किताबी शिक्षा के साथ साथ  जो हस्तशिल्प की शिक्षा भी देते हैं उसकी आवश्यकता पर आधारित एक छोटी सी कहानी --------

"अम्मा ! ओ अम्मा ! मैं दिया बेचने जा रही हूँ", चहकती हुई दीपमाला ने अपनी अम्मा को आवाज़ देकर कहा।
"अरे मेरी मुनिया! तू अकेले न जा पाएगी। बहुत दूर हैं वो बड़ी -बड़ी इमारतें और फिर बाहर खड़ा चौकीदार तुझे अंदर जाने ही न देगा।" दीपमाला की अम्मा ने उसे रोकते हुए कहा।
दीपमाला अभी 12 साल की थी। अम्मा घर-घर जाकर काम करती थी और पिताजी गुजर चुके थे बीमारी के कारण। दीपमाला कक्षा पाँच पास कर चुकी थी पास के सरकारी विद्यालय से, लेकिन कक्षा छः में प्रवेश न लिया था क्योंकि जूनियर वाला विद्यालय थोड़ी दूर था और अम्मा काम पर जाती थी तो छोटे भाई-बहनों को संभालने के लिए दीपमाला का घर में(जो कि टूटी -फूटी सी एक झोपड़ी थी) रहना जरूरी था। वरना दीपमाला का बहुत मन था विद्यालय जाने का। उसके विद्यालय की Mam जी ने भी उसे बोला था दीपा, बेटा पढ़ना मत छोड़ना, यही एक जमापूँजी है, जो हमेशा हमारे काम आती है और फिर उसे कितना कुछ सीखने को मिलता था स्कूल से पढाई-लिखाई के अलावा भी, चाहें वो पुराने अखबारों से सजावट की चीज़ें बनाना हो, पुरानी चूड़ियों से बंदनवार बनाना हो या मिट्टी के दीयों में खूबसूरत रंगों से रंग भरना, ये सभी कुछ उसे उसकी Mam जी ने सिखाया था। पढ़ाई और अन्य सभी कार्यों में सदैव आगे रहने वाली दीपमाला को  कक्षा 5 की वार्षिक परीक्षाओं में कक्षा में प्रथम स्थान भी मिला था और ईनाम के रूप में प्रधानाचार्या Mam जी ने medal पहनाया था और उसकी कक्षा अध्यापिका Mam जी ने उसे रंगों का पूरा डिब्बा दिया था जिसे उसने आज भी संभालकर अपने पास रखा है।

"अरे अम्मा, तू भी ना बड़ी भोली है, मैं इतनी छोटी थोड़े ही हूँ कि ज़रा दूर भी सिर पर दियों की डलिया रखकर चल ना सकूँ,"  खिलखिलाते हुए दीपमाला बोली। 
अम्मा जानती थी कि उसकी बिटिया बात की बड़ी पक्की है, अगर उसने ठान लिया है तो वो दिये बेचकर ही रहेगी। 
बस चल पड़ी दीपमाला अपने सिर पर दियों की डलिया रखकर। कड़ी धूप में पसीने से तरबतर आधे घंटे पैदल चलने के बाद आखिर पहुँच ही गयी उस नयी वाली कॉलोनी के बाहर, जिसके बारे में उसने सुन रखा था कि बड़े सारे पैसे वाले अमीर लोग रहते हैं, इसीलिए उसे लगा था कि उसके सारे दिये बिक जाएँगे जिससे वह अपने और अपनी अम्मा के लिए नए कपड़े ले पाएगी क्योंकि अम्मा की कमाई से तो केवल दीवाली की मिठाई और छोटे तीनो भाई-बहनों के कपड़े ही आ पाएँगे। फिर पिछले साल की तरह उसकी अम्मा और उसकी दीवाली बिना नए कपड़ों के ही बीत जायेगी। 
पर हुआ वही जो उसकी अम्मा ने कहा था।
दीपमाला बड़े गेट से अंदर जा ही रही थी कि चौकीदार ने रोका, "ए लड़की! रुक, कहाँ जा रही है।" 
"चाचा जाने दो न, दिये बेचने हैं", दीपमाला बोली ।
"पागल हो गयी है क्या, तू अपने को देख और अपने दिये देख, कौन खरीदेगा यहाँ तेरे ये बेरंग दिये। यहाँ सारे लोग शॉपिंग मॉल से सामान खरीदते हैं और दिये भी। चल जा यहाँ से।"
दीपमाला निराश हो गयी और वापस लौटने ही वाली थी कि उसे एक ठेले वाले की आवाज़ आयी।
"ले लो भैया ले लो, रंग -बिरंगे दीपक ले लो" ।
अचानक दीपमाला के मस्तिष्क में एक विचार कौंधा । वो भागकर ठेले वाले के पास गयी, "भैया ये दीपक लेकर कहाँ जा रहे हो बेचने ।" दीपमाला ने पूछा।
"वो सामने वाली इमारतों में बड़े सारे लोग रहते हैं बस वहीं जा रहा हूँ।" ठेले वाला बोला । 
दीपमाला ने उससे पूछा,"ये दिये तुम कहाँ से लाते हो भैया।" 
ठेले वाले का दिमाग ठनका ,"तू ये सब क्यों पूछ रही है ,तुझे क्या करना है।" 
"अरे कुछ नहीं, मैं तो बस इसलिए कह रही थी कि मुझे ऐसी जगह पता है जहाँ तुमको ये दिए सस्ते दामों में मिल जाएँगे।" दीपमाला बोली।
"अच्छा तो क्यों मुझे दिए सस्ते दामों में दिलाएगी, तेरा क्या फायदा"।

ये कहकर ठेले वाला कुछ आगे बढ़ा ,तो दीपमाला बोली कि ठीक है तुम्हारी मर्ज़ी, मानो या नहीं । मैंने तो यूँ ही बताया, मेरे मन में आया इसलिए,  क्योंकि तुम तो शॉपिंग मॉल से ये दीये खरीदते हो, महँगे आते होंगे, मेरी अम्मा बता रहीं थीं कि वहाँ सारा सामान महँगा मिलता है।
इतना कहकर दीपमाला ये सोचकर आगे बढ़ गयी कि ठेले वाला शायद उसे रोकेगा और वही हुआ। ठेले वाले ने उसे रोका और वापस बुलाकर पता पूछा कि कहाँ मिलेंगे ये दिये सस्ते में। 
दीपमाला बोली कि परसों यहीं पर आना तब मैं तुमको वहाँ ले चलूँगी। ठेले वाला मान गया।
दीपमाला जानती थी कि चौकीदार उसे  कॉलोनी के अंदर जाने न देगा, इससे अच्छा वो अपने दिए इस ठेले वाले को ही बेच दे।
पर अब उसे जल्दी थी घर पहुँचने की क्योंकि उसे जाकर ये दिए रंगने भी थे और कुम्हार काका से और ढेर सारे दिये लेने भी थे। 
कुम्हार काका उसे मुफ्त में दिये दे देते थे क्योंकि कुम्हार काका के 5 साल के बेटे को दीपमाला कभी-कभी पढ़ा देती थी इससे खुश होकर कुम्हार काका ने उससे पूछा कि बिटिया बताओ तुमको क्या दूँ तो दीपमाला ने उनसे दीवाली में बेचने को दिए माँग लिए। 
दीपमाला दौड़ी-दौड़ी घर आयी और अपना बस्ता ढूँढने लगी, अम्मा ने पूछा," क्या बात है मुनिया क्या ढूँढ रही है तो दीपमाला ने बस्ते के बारे में बताया, अम्मा बोली वो तो मैंने कबाड़ में दे दिया, तू तो स्कूल जाती नहीं इसलिए।
बेचारी दीपमाला निराश होकर रोने लगी। अम्मा ने उसे चुप कराया और पूछा कि उसे बस्ता क्यों चाहिए था, तो दीपमाला बोली कि मेरे रंग जो मेरी Mam जी ने दिए थे उसी में रखे थे। अचानक अम्मा उठी और एक पुराने खाली जूते के डिब्बे में से रंग निकालकर ले आयी । 
दीपमाला को तो जैसे सारा संसार मिल गया। अम्मा बोली, "तेरे ईनाम की चीज़ थी, ऐसे कैसे फेंक देती।" 
अब तो तुरंत दीपमाला ने अपना काम शुरू किया, जितने दिये उसके पास थे सारे रंग डाले, अम्मा ने जब रंगे हुए दिये देखे तो उनके मुँह से बरबस ही निकल गया, "तेरे हाथों में जादू है।"

एक दिन बाद दीपमाला ठेले वाले को दिये दिखाने के लिए लेकर आयी।
दीपमाला ने अपनी अम्मा को मना कर दिया था कि ठेले वाले को ये न बताये कि वो दिये किसने रंगे हैं क्योंकि दीपमाला को डर था कि कहीं ठेले वाला ये जानकर मना न कर दे कि एक छोटी बच्ची ने दिये रंगे हैं।
ठेले वाले ने जब उन दीपमाला के हाथों के रंगे दियों को देखा तो बोला अरे ये तो बिलकुल मॉल जैसे हैं। 
अम्मा बोली," बताओ कितने में लोगे।"
ठेले वाला बोला लूँगा तो लेकिन ये कम हैं मुझे और चाहिए। अम्मा बोली कि इतने ले लो और समय दो। ठेले वाला वाज़िब दामों में दिये खरीदकर और दो दिन बाद आने का समय देकर चला गया।
तभी एक और समस्या आ गयी, रंग ख़त्म हो गए थे। तभी अम्मा बोली कि जो पैसे आये हैं दिये बेचने से उसी से रंग ले आ मेरी मुनिया। बस फिर क्या था । स्कूल के पास वाली किताबों की दूकान से रंग ले आई दीपमाला और बचे पैसों से कुम्हार काका से और दिये खरीदे फिर भी कुछ पैसे बचे रहे क्योंकि रंगीन दिए महँगे बिकते थे सादे दियों की तुलना में। 
बस दिवाली आने तक दीपमाला ने अपने स्कूल की Mam जी द्वारा सिखाये गए हुनर के बल पर हजार रुपये कमा लिए और दिवाली के एक दिन पहले जाकर अपने लिए फ्रॉक, अम्मा के लिए साड़ी खरीदकर लायी पर हाँ इस मौके पर वो अपनी Mam जी के लिए एक सुन्दर सी "कलम" लेना नहीं भूली। आखिर ये सब उसे उसकी Mam जी ने जो सिखाया था।
अब तो पूरी बस्ती में सब दीपमाला के हाथों के जादू की तारीफ करते नहीं थक रहे थे। ये सब दीपमाला के दृढ़ निश्चय का ही कमाल था।


लेखिका
पूजा सचान,
सहायक अध्यापक,
English Medium 
Primary School Maseni,
Block-Barhpur,
District-FARRUKHABAD.

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