बेटी की अभिलाषा

बेटी-बेटी मत पुकारो,
तुम स्वयं इसके दुश्मन बन जाते हो,
एक अच्छे माँ-पापा होकर भी,
तुम भेद-भाव अपनाते हो।

बेटों को वंश वृद्धि का,
नाम तुम्ही दिलाते हो,
बेटियों को चूल्हे-चौके पर,
तुम्ही स्वयं तपाते हो।

बेटों को उच्च शिक्षा देकर,
बेटियों को बंदिश बनाते हो,
पराये घर की धन हो तुम,
बचपन से ही उन्हें सिखाते हो।

उनके अरमानों के उठने से पहले ही,
तुम उनका गला दबाते हो,
क्यों पेट मे पलते ही तुम,
उनकी भ्रूण हत्या करवाते हो।

अगर बेटी न होती तो,
ये संसार कैसे चलता,
पुरुष अधूरा ही रह जाता,
फिर ब्याह किससे करता।

बेटी की शक्ति को देखो,
पुरुष से कंधा मिलाती है,
आज खडी अंगारों पर,
फिर भी हँसती जाती है।

जिस दिन बेटी-बेटा में माँ,
तुम फर्क नहीं करवाओगी,
उस दिन तुम संसार मे,
एक सच्ची माँ कहलाओगी।।

रचयिता
सुधीर डोबरियाल,
सहायक अध्यापक,
रा. प्रा. वि.-मरगाँव,
विकास क्षेत्र-कल्जीखाल,
जनपद-पौड़ी गढवाल,
उत्तराखण्ड।

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