बसंत ऋतु

हरी धरती कोमल पात
पहाड़ों में बुग्याल ऊँचे हिमाल।
ब्रह्म कमल खिले कैलाश
आ गया बसंत दे तेरे रैबार।
पातों में पात मालू का पात
सर -सर बहती ठंडी बयार।
घुघुती, हिलांस, कोयल, मोनाल
आ गया बसंत देते रैबार।।
पीले-पीले सरसों के खेत
काफल के बौर, कप्फू के गीत।
पहाड़ियों के बीच चिड़िया-बोल
आ गया बसंत देते रैबार।।
मोहक दिन, सपनों की रातें
 सुनहरे गेहूँ-जौ की बालें।
रंग-बिरंगे धरती के रूप
आ गया बसंत देते रैबार।।
फुर-फुर उड़ती ठंड की चादर
घर-घर आते नन्हें फुल्यारी।
उमंग भरते होली के रंग
आ गया बसंत देते रैबार।।
फल फूलों के झाल
फ्यूंली बुरांश कोमल बांज।
फुल्यारियों का घोग्या गीत- नारे
आ गया बसंत देते रैबार।।
इतराती तितली, बलखाती चिड़िया
गुनगुनाते भौंरे, पुकारती भेड़ें।
फुदकती बछिया, रंभाती गायें
आ गया बसंत देते रैबार।।
फूले आड़ू, पोलम, पद्म,
मूलक-भमोरे-बेडू-काफल।
कोयल की बोली, हिरणों की टोली
आ गया बसंत देते रैबार।।

रचयिता
डाॅ0 गीता नौटियाल,
सहायक अध्यापक,
रा0उ0वि0 बैनोली भरदार,
जनपद-रूद्रप्रयाग,
उत्तराखण्ड।

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