​उत्थान के लिए संवाद करते शिक्षक

रिषदीय विद्यालय ये दो शब्द सुनते ही मस्तिष्क में सामान्यतः ऐसी छवि आती है जहाँ जीर्ण - शीर्ण से सरकारी भवन में में थोड़े – से बच्चे बहुत सारा शोर कर रहे होंगे। एक - दो अध्यापक या तो धूप में बैठे होंगे या फिर डंडा लेकर बच्चों को डरा रहे होंगे। साथ में बेहद ही निम्न गुणवत्ता का भोजन ग्रहण करते बच्चों की कल्पना की जाती है। वास्तव में ये छवियाँ पूर्वाग्रहों के कारण हैं। आज परिषदीय विद्यालय इन छवियों से बहुत आगे आ चुके हैं। शिक्षकों ने केवल पढ़ाने की ही नहीं अपितु नवाचारी होने तक की जिद्द पकड़ ली है। विद्यालयों की सपाट दीवारों पर अब बारिश के चूते पानी से ही अप्रिय चित्रकारी नहीं बन रही हैं। अपितु इन दीवारों पर अब शिक्षण सहायक सामग्री की बड़ी - बड़ी चित्रकारी हो रही है। विद्यालयों के फर्श तक पर शैक्षिक खेलों की चित्रकारी हो चुकी है। विद्यालय परिवेश को उत्तम बनाने के प्रयास इतने उच्च स्तर तक पहुँच चुके हैं कि चूने से पुतने वाले विद्यालयों को शिक्षक अब प्लास्टिक पेंट तक से पुताने लगे हैं। कहीं हरियाली प्रधान विद्यालय हैं तो कहीं पुस्तकालय प्रधान। ऐसे प्रयास करने वाले शिक्षक प्रारम्भ से ही विद्यमान हैं। परन्तु सोशल मीडिया के आने से न केवल इन प्रयासों वरन इन प्रयासकर्त्ताओं की संख्या ने भी तीव्र गति पकड़ी है । सोशल मीडिया अभिव्यक्ति के साथ - साथ जुड़ाव का भी एक सशक्त माध्यम है। एक - दूसरे से सैकड़ों किलोमीटर दूर रहने वाले परन्तु एक से विचार रखने वाले व्यक्ति भी एक मंच पर आ रहे हैं। कहीं लेखकों के मंच बन रहे हैं तो कहीं पर्यावरण प्रेमियों के। इसी कड़ी में 

नवाचारी शिक्षकों ने भी मिलकर मिशन शिक्षण संवाद नाम का एक मंच बनाया है। एकदम निस्वार्थ भाव से परिषदीय शिक्षक इस मंच पर जुटे हैं। इकाई संख्या से आरम्भ हुआ ये समूह अब सहस्त्रों शिक्षक के साथ चल रहा है। सेवारत शिक्षकों के लिए कोई प्रशिक्षण कितने दिन का होता है? प्रायः तीन दिन, कभी - कभी पाँच दिन। कुछ बड़े प्रशिक्षण अधिकतम 10 दिन तक चले हैं। लेकिन संवाद पर शिक्षक 24×7 प्रशिक्षण पा सकते हैं। रात के दो बजे भी कोई संवाद का ब्लॉग या फेसबुक पेज खोलेगा तब भी अगले दिन पढ़ाने के लिए कोई न कोई उपयोगी शिक्षण विधि या शिक्षण सहायक सामग्री खोज ही लेगा। 

संवाद में समस्त जनपदों से शिक्षक लगातार जुड़ रहे हैं। परिषदीय विद्यालयों की एक बड़ी विडम्बना ये है कि यहाँ विषय विशेषज्ञता के अनुसार शिक्षक नहीं होते अपितु यहाँ शिक्षक को कई ऐसे विषय भी पढ़ाने पड़ते हैं जिनमें शिक्षक को स्वयं रूचि नहीं होती। ऐसे में एक गणित शिक्षक को भी संस्कृत पढ़ाने की विधियाँ और उसकी शिक्षण सहायक सामग्री एक क्लिक में मिल रही है और इन सभी प्रयासों का सीधा लाभ उन नौनिहालों को मिल रहा है जो देश के भविष्य हैं। ऐसे विद्यालय प्रकाश में आ रहे हैं जहाँ 100 प्रतिशत विद्यार्थी आते हैं तो कहीं ठेठ देहाती परिवेश वाले गाँव में भी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले छात्र सामने आ रहे हैं। सोशल मीडिया का सबसे सकारात्मक कार्य रहा है विचारों का प्रवाह। इस मंच की शिक्षकों के लिए यही उपयोगिता रही है कि कहीं एक उत्तम विचार  पनपता है तो उसे विस्तृत होने के लिए सारा जहान मिल जाता है। ये प्रणाली ऐसी नहीं है जहाँ एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे तक पहुँचने का क्रम हो। यहाँ तो एक ने कोई नवाचार किया तो एकसाथ सहस्त्रों तक वो नवाचार पहुँच जाता है। शिक्षकों में एक जुनून भर चुका है कि वे अच्छे से अच्छा प्रदर्शन करके प्राथमिक शिक्षा के स्तर को बढ़ाएँगे। अब वह दिन दूर नहीं जब प्राथमिक शिक्षा डूबता जहाज नहीं बल्कि उगता सूरज मानी जाएगी।

लेखक
प्रांजल सक्सेना,
बरेली।
साभार : डेली न्यूज एक्टिविस्ट

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