अकुलाहट की अभिव्यक्ति

26 जनवरी 15 अगस्त
लगती झड़ी बधाई की
लेकिन मेरी अंतरात्मा
रहती है अकुलाई सी

ऊपर-ऊपर खूब सजावट,
अन्दर से सब खाली
ऐसा लगता देशभक्ति भी
है तारीखों वाली

शिक्षा का विस्तार हुआ पर
संस्कार का ह्रास
दवा-डॉक्टर बढ़े मगर
रोगों का असल विकास

अस्पताल में व्यापारी हैं,
खोजूँ मैं भगवान
ऊँची-ऊँची डिग्री में मैं
ढूँढ रहा इंसान

दन-दनादन तकनीकों से
उन्नत हुईं मशीनें
लेकिन उनके शोर में पिसती
मानवता की चीखें।

दुनिया वैश्विक गाँव बनी पर
रिश्ते अब बेजान
विकृति को संस्कृति कहकर
अपनाने में है शान

नारी शक्ति बढ़ी मगर
नारीत्व हुआ अपमानित
बढ़ते जाते नरपिशाच
ये किस 'संस्कृति' से चालित

खाकी वर्दी रक्षक है पर
जनता उससे डरती
न्याय-व्यवस्था स्वयं त्रस्त है,
पीड़ित-पीड़ा बढ़ती

अधिकारों में जागरूकता
कर्तव्यों पर मौन
भ्रष्टाचारी को समाज में
करे प्रतिष्ठित कौन

नकारात्मक भाव से मुझको
मत समझें आक्रान्त
केवल दर्पण दिखलाया
जो कभी न होता भ्रान्त

नहीं प्रतीकों तक हो सीमित
राष्ट्रधर्म का ओज
खून के हर कतरे में दौड़े
देशभक्ति हर रोज

रचनाकार
प्रशान्त अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
ज़िला-बरेली (उ.प्र.)

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