स्वागत ऋतुराज
हुआ प्रकृति का, आह्लाद,
मिली, बसंत ऋतु सौगात।
कली -कली ने, किया श्रृंगार,
बहकी बहकी, चले बहार।
कोयल छेड़े, मधुर बसंती गान,
तितलियाँ करें,भौरों का सम्मान।
डाली -डाली, करती शुद्ध वायु संचार,
नव ऊर्जा करती, धरा श्रृंगार।
आम्र बौरों की, मधुर मुस्कान,
गेहूँ बाली, झूमती गाती गान।
पुष्प का, भौंरों को, देना आमंत्रण,
सहज स्वीकारते, उनका निमंत्रण।
झूमे मनवा, डोले मन बारंबार,
धरती से अम्बर तक, छाई बहार।
बसंती रंगों ने, ली फिर अंगड़ाई,
देखो-देखो, बसंत ऋतु आई।
अवलोकित पुष्पों पर, नव तरुणाई,
सर्वत्र व्याप्त, हरियाली छाई।
पाया, प्रकृति ने रूप मनोरम,
वल्लारी से लिपटा, कुसुम कानन,
गौरी सज खोए, स्वर्णिम स्वप्न
नव रस से परिपूर्ण, नील गगन।
फागुन गीत गाती मानव टोली,
पीली चुनार, धरा ने ओढ़ी।
आनद ले कोयल की कुहुक, टेसू बहार,
गुलाबी रंग ले प्रेम ऋतु की फुहार,
बसंत ऋतु देती, ये शुभ संदेश
शांति आगाज कर खुशियाँ भरो अनेक।
रचनाकार
अंजनी अग्रवाल "ओजस्वी",
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय सेमरुआ,
विकास खण्ड-सरसौल,
जनपद-कानपुर नगर।
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