गिनतियाँ भी बोलती हैं

एक, दो, तीन, चार,

पाठ दुहराओ बार-बार।

पाँच बोला साथी छ:, सात, आठ,

हमारे बिन न होता कोई भी पाठ।।


नौ, दस, ग्यारह भी बोले,

हम सब रहते झोरे-झोरे।

बारह, तेरह, चौदह, पंद्रह बोले,

लौह पथ गामिनी भी हमें पुकारे।।


सोलह, सत्रह, अठारह, उन्नीस,

झुकने न दो भारत माँ का शीश।

अभिवादन कर गुरूजनों का,

नित पा उनसे अमर आशीष।।


उन्नीस-बीस गले मिल बोले,

मानव-मानव को क्यूँ तोले।।

हम भी हैं कितने अलग-अलग,

फिर भी प्रेम में रहते कितने मलंग।।


गर मानव भी प्रेम से रहे,

गलतियाँ एक दूजे की सहें।।

जीवन में तो होती उठा पटक है, 

पर मन से सब निष्कपट रहें।।


1 के आगे अनंत संख्याएँ,

1 के पीछे अनगिनत संख्याएँ।।

  संख्याओं से पिरोया गया जगत  है,

1 भी हटाने से उधड़ जाता जगत है।।


रचयिता 
प्रतिभा भारद्वाज,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यामिक विद्यालय वीरपुर छबीलगढ़ी,
विकास खण्ड-जवां,
जनपद-अलीगढ़।

Comments

Post a Comment

Total Pageviews