वीरांगना झलकारी बाई

झलकारी की झलक देखकर,

वो बुन्देले भी हाँफ गये……

जब उतरी वो समरभूमि में,

गोरे भी थर-थर काँप गये।।


वीरांगना झलकारी बाई - इन्हें कहते हैं दूसरी लक्ष्मीबाई।

जब भी भारतीय वीरांगनाओं का नाम लिया जाता है, उसमें झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम सबसे आगे आता है, हालाँकि बहुत कम लोग ही जानते हैं कि देश में एक ऐसी भी वीरांगना रही हैं, जिनका नाम रानी लक्ष्मीबाई से भी पहले आता है। इस वीरांगना को भारत की दूसरी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है।


वीरांगना झलकारी बाई  (22 नवंबर 1830 - 4 अप्रैल 1857) झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को गुमराह करने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। अपने अंतिम समय में भी वे रानी के वेश में युद्ध करते हुए वे अंग्रेज़ों के हाथों पकड़ी गयीं और रानी को किले से भाग निकलने का अवसर मिल गया। उन्होंने प्रथम स्वाधीनता संग्राम में झाँसी की रानी के साथ ब्रिटिश सेना के विरुद्ध अद्भुत वीरता से लड़ते हुए ब्रिटिश सेना के कई हमलों को विफल किया था। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झाँसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने 22 जुलाई 2001 में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है,उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ में एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।

‘जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी’,


लेखक
हेमलता गुप्ता,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय मुकंदपुर,
विकास खण्ड-लोधा, 
जनपद-अलीगढ़।




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