47/2024, बाल कहानी- 18 मार्च


बाल कहानी- समझौता नहीं
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रेहाना के अब्बू-अम्मी अपने खेत-खलिहान, घर-द्वार और अपनों को छोडकर काम की तलाश में असलम शेख के भट्टे पे रोजी-रोटी की जुगाड़ में आ गये।
रेहाना अपने गाँव में छठी जमात तक पढ़ी थी। यहाँ अम्मी-अब्बू दिनभर काम में लगे रहते, इसी वजह से रेहाना अभी स्कूल न जा पा रही थी। वह अम्मी-अब्बू का काम में हाथ बँटाती और समय निकालकर खुद ही पढ़ती रहती।
एक दिन अब्बू ईंटें बना रहे थे। रेहाना अंग्रेजी की किताब पढ़़कर अब्बू को सुना रही थी, तभी भट्टा मालिक असलम शेख अपनी चमचमाती कार से उतरकर भट्ठे पर काम कर रहे मजदूरों के पास आये।
उनकी निगाह रेहाना की किताब पर पड़ी। उन्होंने उत्सुकतावश रेहाना से पढ़ने को कहा। रेहाना ने फटाफट पढ़कर सुना दी। 
असलम शेख ने पूछा-, "रेहाना! आप बड़ी होकर क्या बनना चाहती हो?"
रेहाना-, "मैं बड़ी होकर आपकी तरह ईट का भट्टा अपने गाँव में  बनवाऊँगी, जिससे मेरे अब्बू को गाँव न छोड़ना पड़े।"
रेहाना के अब्बू ने माँफी माँगते हुए कहा-, "मालिक! ये अभी नादान है। ये उन सपनों को देख रही है, जो हमारे वश में नहीं है।"
असलम शेख बोले-, "रिजवान! रेहाना के सपने उसके अपने सपने हैं। सपनों को पूरा करने का जज्बा उसके मन में पैदा करो। सपने अमीरी-गरीबी के आधार पर नहीं देखे जाते। सपने जज्बे के साथ देखे जाते हैं।"
"मैं अपने सपनों से समझौता कभी नहीं करूँगी। अपना सपना साकार करने के लिए कड़ी से कड़ी मेहनत करूँगी।" रेहाना के चेहरे पर नूर चमक रहा था।
'इंशाअल्लाह' असलम शेख ने  दुआ माँगते हुए कहा।

संस्कार सन्देश
सपने देखना जितना आवश्यक है, उतना ही उन्हें साकार करने के लिये कड़ी मेहनत भी जरूरी है।


लेखिका-
प्रवीणा दीक्षित (अध्यापिका)
क० गाँ० आ० बा० वि० कासगंज

✏️संकलन
📝टीम मिशन शिक्षण संवाद
नैतिक प्रभात

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