चिपको आंदोलन

प्रकृति के संरक्षण को 

पेड़ छुपाए खुद में छाँव

बादल, बारिश को बुलाकर वो

अपनी नसों में सहेजकर पानी


दिया हमें, घर, दरवाजे और खिड़कियों के पल्ले,

तितलियां, परिंदे, घोंसले और झूले,

खूबसूरत प्रकृति, फूल, फल और रंग,

ये ही तो सिखाते हमें जीने का ढंग।।


जो खुद नहीं चल सकते मगर दुनिया चलाते हैं,

जो खुद बीज बनकर दफन हो जाते हैं,

पेड़ों ने दिया हमको अपना सम्पूर्ण जीवन,

खुद को जलाकर आग दी 

और जब बुझ गई तो कोयला दिया,

सड़ भी गया तो ईंधन, पैट्रोलियम मिला।


इन खूबियों को पहचान इसका मर्म जान,

1925 में जन्मी गौरा लिपट गयीं पेड़ों पर

जब 26 मार्च 1974 में देवदार पर आ पड़ी आफत

 क्योंकि सड़क बनाने को 25000 पेड़ हुए चिन्हित,


गौरा देवी बनीं शेरनी

27 महिलाओं की टोली लेकर,

लिपट गए सब पेड़ों पर,

क्यों के खुद मरकर भी बचाना था,

इन निरीह बेजुबानों को।।


बोली जंगल तो है माँ का घर

हे मानव फल, फूल, लकड़ी, जड़ी

देते हमको ये जंगल,

इनको काटोगे तो बहुत क्षति हो जाएगी,

पेड़ों ने तुम्हें वह सब दिया

जिससे तुम सब जीवित हो।


रोते - रोते  ये साहसी 

यूँ चिपक गयीं पेड़ों पर

कि लौटना पड़ा ठेकेदारों को

बच गए जंगल फैली खुशी की लहर

तब दिया था जो नारा

क्या हैं जंगल के उपकार, मिट्टी, पानी और बयार।

मिट्टी, पानी और बयार, जिंदा रहने के आधार।

चमोली से लेकर अब कई राज्यों में शुरू हुआ,

पेड़ों को बचाने को अब मध्य भारत के विन्ध्य तक फैल गया।

मगर हे मानव अब मत भूल

पेड़ों ने तुम्हें वह सब कुछ दिया

जिससे तू जीवित है।


पेड़ों ने दिया तुम्हें सम्पूर्ण जीवन,

और पेड़ों को दी तुमने मृत्यु,

पेड़ों से ही बचेगा पर्यावरण और

पर्यावरण से बचेगी हमारी सम्पूर्ण धरती।।


रचयिता

मंजू बहुगुणा,                         

सहायक अध्यापक,

राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय आमपाटा,

विकास खण्ड-नरेंद्रनगर,

जनपद-टिहरी गढ़वाल,

उत्तराखण्ड।



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