यह नव अंकुर

यह नव अंकुर फूट नवल निज जननी के आँचल,
मुस्काता, खिलता, बढ़ता है।
जग के आँगन में खेल-खेल कर,
जीवन के झंझा झेल-झेल कर।
आशाओं के दीप सरीखा,
तमस मिटाता मन का,
मुस्काता, खिलता, बढ़ता है।
यह नव अंकुर- - -
पीकर कालकूट सारा जग का,
विघ्न सहन करता निज मग का।
वसुधा के आँगन में नूतनता की,
अभिलाषाओं में,
बन बसंत सा यह खिलता है।
मुस्काता, खिलता, बढ़ता है।
यह नव युग का बोध स्वयं है।
नव मानवता के पथ का माध्यम है।
यह हीरे मोती सा निश्चित ही चमकेगा।
कालरेख की धारा में यूँ तिरता है।
मुस्काता, खिलता, बढ़ता है।
मत समझो निर्बल, यह जय का,
युग के नव परिवर्तन के निश्चय का।
तम से लड़ता यह मानवता का अंकुर,
उजियारों के ऊँचे शिखरों पर चढ़ता है।
मुस्काता, खिलता, बढ़ता है।
रेखाओं के चित्र सजीले बना बनाकर,
भावों के मोती सजा सजाकर।
आत्म बोध के पथ पर वह,
सीख-सीखकर, गति, लय, प्रवाह में बढ़ता है।
मुस्काता, खिलता, बढ़ता है।
बहने दो निज गति में इसको तुम,
मिटने दो अन्तर पट का हर तम।
प्रेरक इंगित से, अभिसिन्चित कर दो।
यह दिव्य स्वप्न के महलों में,
कल्पित पंख लगाए उड़ता है।
 यह नव अंकुर फूट नवल नव,
 मुस्काता, खिलता, बढ़ता है।

रचयिता
सतीश चन्द्र "कौशिक"
प्रधानाध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय अकबापुर,
विकास क्षेत्र-पहला, 
जनपद -सीतापुर।

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